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सिन्दूरप्रकर देखकर राजा वसु ने बड़े ही आदर-सम्मान के साथ उनके चरणों में प्रणाम किया, विनय और श्रद्धाभक्ति से उनको उच्च आसन पर बिठाया और आने का कारण पूछा। ___ माता ने रुंआसे स्वर में कहा-राजन्! मैं आपके द्वार पर पुत्र की भिक्षा मांगने आई हूं। मेरा पुत्र पर्वतक नारदजी के साथ विवाद में उलझ गया है। उसने जो पक्ष रखा है उससे लगता है कि वह मिथ्या है। फिर उसने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए जीभ निकलवाने की भी बात कह दी। एक ओर स्वयं की प्रतिष्ठा का प्रश्न है तो दूसरी ओर दण्ड का विधान। इससे मेरा घर बर्बाद हो जाएगा। मैं कहां और कैसे रहंगी? यह विवाद कल आपके सामने आने वाला है। उसका समाधान अब आपके ही हाथ है। राजा वसु उपाध्याय की पत्नी की बात सुनकर दुविधा में पड़ गये। उन्होंने कहा-माताजी! नारदजी जो अर्थ कर रहे हैं अर्थ तो वही सही है। फिर मैं गलत अर्थ को सही कैसे ठहराऊं? गलत फैसला देना मेरी सत्य-परायणता का हनन है। यह काम मेरे से कैसे होगा? माता ने झोली पसारते हुए कहा-चाहे कुछ भी हो, यह अनुकम्पा तो आपको करनी ही होगी। अत्यधिक आग्रह और करुणा के सामने राजा वसु का दिल पसीज गया। उन्होंने वृद्धा को आश्वस्त करते हुए घर भेज दिया।
दूसरे दिन बाजार के चौराहों और तिराहों पर एक ही चर्चा थी कि महाराज वसु आज एक महत्त्वपूर्ण पक्ष पर अपना फैसला देंगे। हजारों लोग उस फैसले को सुनने के लिए राजसभा में उपस्थित हुए। सभी के चेहरों पर एक ही जिज्ञासा, उत्सुकता और कुतूहल था कि देखें, न्याय किसके पक्ष में होता है। ___राजा वसु राजसभा में अपने अधर सिंहासन पर विराजमान थे। दोनों पक्ष अपनी-अपनी दलीलों को प्रस्तुत कर अपने-अपने अर्थों को स्पष्ट कर रहे थे। सारी जनता चित्रलिखित बनी हुई ध्यानपूर्वक उन अर्थों का श्रवण कर रही थी। राजा वसु भी कहीं कहीं अपनी टिप्पणी से उस सभा का मनोरंजन कर रहे थे। ___ अन्त में जब पर्वतक और नारद की सारी चर्चा समाप्त हो गई तब दोनों ने कहा-महाराजन्! अब न्याय की तराजू आपके हाथ में है। उस पर तोल कर आप किसको उत्तीर्ण करते हैं, यह निर्णय करना अब आपका काम है।
राजा वसु सत्य के आसन पर विराजित थे, फिर भी उनका मानस
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