________________
उद्बोधक कथाएं
२७७ किया करते थे। उन्होंने प्रत्युत्तर में कहा-नारदजी! तुम्हारी बात में सत्यता नहीं है। नारद ने कहा-नहीं, मैं सत्य बोल रहा हूं। तुम व्यर्थ ही मिथ्या आग्रह कर रहे हो। इस प्रकार दोनों का वाद-विवाद चलते-चलते अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। नारदजी ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए कह दिया-यदि मेरा अर्थ मिथ्या हो जाए तो मैं अपनी गर्दन भी देने को तैयार हूँ। उसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए पर्वतक ने कहा-मैंने जो अर्थ किया है, यदि वह मिथ्या प्रमाणित हो जाए तो मैं अपनी जीभ निकलवा सकता हूँ।
अन्त में दोनों ने अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए राजा वसु के पास जाना उचित समझा। उन्होंने सोचा-वसु राजा सत्यवादी हैं। वे भी उपाध्याय क्षीरकदम्बक के पास पढे हैं। उन्होंने भी गुरुमुख से इस वाक्यांश का अर्थ सुना है। वर्तमान में उनकी क्या धारणा है? वे जो भी निर्णय देंगे, वही सबको मान्य और स्वीकृत होगा तथा उनके अनुसार जिसका कथन मिथ्या साबित होगा वह स्वीकृत दण्ड का अधिकारी होगा।
सारे नगर में दोनों के विवाद और कृत-प्रतिज्ञा की चर्चा बिजली की तरह फैल गई। राजपुरोहित शाम को विद्याध्ययन संपन्न करा कर घर पहुंचे। घर में वृद्धा माता थी। पुत्र ने माता के सामने नारदजी के साथ हुए विवाद और अपनी कृत-प्रतिज्ञा की चर्चा की। मां ने पुत्र को उलाहना देते हुए कहा-पुत्र ! तुमने अच्छा नहीं किया। तुमने अपने मिथ्या आग्रह के कारण अर्थ का अनर्थ कर दिया। तुम्हारे पिताजी बहुत बार 'अजैर्यष्टव्यम्' का वही अर्थ किया करते थे, जो नारदजी कह रहे है। मैंने भी तुम्हारे पिताश्री के मुख से उसी अर्थ को सुना है। लगता है, इसमें तो तुम्हारी ही हार है।
पर्वतक माता की बात सुनकर चिन्तित हो गया। वह मन ही मन उपाय सोचने लगा। उसने कहा-मां! मुझे ऐसा कोई मार्ग सुझाओ जिससे मैं अपने द्वारा प्रतिपादित अर्थ को सत्यापित कर सकू और अपनी कृत प्रतिज्ञा से बरी हो जाऊं। मां ने कहा-राजा वसु सत्यवादी हैं। उनकी सत्यता की महिमा जगत् प्रसिद्ध है। वे कभी झूठ बोलेंगे नहीं। इसलिए तेरी पराजय सामने दिखाई दे रही है। फिर भी मैं राजा वसु के पास जाती हूं, शायद कोई उपाय हाथ लग जाए।
पर्वतक की माता राजा वसु के पास पहुंची। गुरु-पत्नी को महल में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org