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सिन्दूरप्रकर अपने पिता के दिवंगत होने के पश्चात् राजा बन गया और नारद देशाटन के लिए निकल गया।
एक दिन राजा वसु शिकार खेलने के लिए जंगल में गए हुए थे। दूर से उन्होंने अपने लक्ष्य पर बाण छोड़ा। किन्तु वे यह देखकर विस्मय से भर गए कि बाण वध्य पर न लगकर कहीं आकाश में ही ठहर गया है। राजा वसु ने जब कारण की खोज की तो उन्हें ज्ञात हुआ कि मध्य में एक स्फटिक की शिला है। वही बाण को रोक रही है। शिला पारदर्शी थी। उसकी पारदर्शिता के कारण शिकार तो दिखाई दे रहा था, पर बाण बीच में ही रुका हुआ था। वे उसे चमत्कारी शिला मानकर अपने महल में ले आए। उन्होंने अपने चतुर कारीगरों से उस स्फटिक शिला का राजसिंहासन बनवा लिया। अब राजा प्रतिदिन राजसभा में उस सिंहासन पर बैठने लगे। उस समय लोगों को ऐसा प्रतीत होता था कि सिंहासन अधर में लटका हुआ है। नगर की सारी जनता इस दृश्य से विस्मयमुग्ध थी। कुछ लोग इसे चमत्कारी घटना मान रहे थे तो कुछ राजा का प्रभाव। आस-पास और सुदूर देशों में यह बात प्रचारित हो गई कि राजा वसु बड़े ही न्यायनिष्ठ, सत्यवादी और प्रजा के हित-चिन्तक हैं। वे सदैव प्रजा का कल्याण करते हैं और सदा सत्य ही बोलते हैं। उन्हीं के प्रभाव से उनका राजसिंहासन भी पृथ्वी से ऊपर उठा रहता है। लोगों के मानस में उनकी सत्यनिष्ठा की एक गहरी छाप जम गई।
एक बार उपाध्याय क्षीरकदम्बक के पुत्र पर्वतक अपने विद्यार्थियों को पढ़ा रहे थे। अचानक नारद ऋषि घूमते-घूमते वहां आ पहुंचे। वे अपने सहपाठी पर्वतक से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। राजपुरोहित पर्वतक ने भी अपने मित्र सहपाठी को आसन आदि देकर उनका उचित सम्मान किया। उस समय पर्वतक अपने छात्रों को किसी वाक्यांश का अर्थबोध करा रहे थे। वह वाक्यांश था-'अजैर्यष्टव्यम्।' पर्वतक उसका अर्थ बता रहे थे कि बकरों की बलि से होम करना चाहिए। ऐसा अर्थ सुनकर नारदजी अचानक चौंके और कहने लगे-मित्र पर्वतक! तुम जो यह अर्थ कर रहे हो वह मेरी समझ में सही नहीं है। मेरी बुद्धि के अनुसार इसका अर्थ होना चाहिए- 'न जायते इति अजः-व्रीह्यः।' अर्थात् पुराने धान का यज्ञ में हवन करना चाहिए। यही अर्थ तुम्हारे पिताश्री उपाध्याय क्षीरकदम्बक भी किया करते थे।
पर्वतक यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि उनके पिताजी ऐसा अर्थ
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