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________________ उद्बोधक कथाएं २७५ गाड़ी इस मार्ग से गई है। गाड़ी के दाईं ओर मार्ग की धूल में जगहजगह पर बैल के बैठने के निशान बने हुए थे। उनसे मैंने समझ लिया कि गाड़ी में दाईं ओर गलियारा बैल जुता हुआ है। मार्ग में बाई ओर बैल के टेढे-तिरछे पदचिह्नों को देखकर मैंने अनुमान लगाया कि गाड़ी में बाईं ओर लंगड़ा बैल है। गाड़ी के रास्ते में घड़े से गिरते हुए पानी और पानी के साथ बैल की पूंछ के बाल देखकर मैंने सोचा कि गाड़ी हांकने वाला अवश्य ही कोई ब्राह्मण है। गाड़ी के पीछे-पीछे झाडू का निशान बनता देखकर मैंने अनुमान लगाया कि गाड़ी के पीछे कोई झाडूधारी चाण्डाल होना चाहिए। जहां जहां गाड़ी रुकी होगी वहां अवश्य ही गाड़ीवान् ब्राह्मण भी नीचे उतरा होगा। उसके शरीर से झरती हई कोढ के पीव की बूंदें रास्ते पर पड़ी हुई थीं, उन पर मक्खियां भिनभिना रही थीं, मैंने पीव को देखकर सोचा कि गाड़ी हांकने वाला ब्राह्मण कोढी है। राजन्! मार्ग में कोई स्त्री बैठकर दांए हाथ का सहारा लेकर उठी थी। उसके दाएं हाथ के चिह्न के आधार पर मैंने जाना कि वह स्त्री गर्भवती है और उसके गर्भ में पुत्र है। क्योंकि कन्या को जन्म देने वाली स्त्री बाएं हाथ का सहारा लेकर उठती है। जहां वह स्त्री विश्राम के लिए बैठी थी वहां बकुल के फूल और कुंकुम के कण बिखरे हुए थे। मैंने अनुमान लगाया कि उसके गले में बकुल के फूलों की माला और मांग में कुंकुम है। वहां पड़ा हुआ लाल वस्त्र का टुकड़ा उसके लाल साड़ी के परिधान को बता रहा था। इन सब लक्षणों को देखकर तथा बुद्धिबल से अनुमान लगाकर मैंने यह सब कुछ निर्णय किया। राजा ने उसकी दूरदर्शिता को जानकर और बुद्धिमानी से प्रभावित होकर उसे मंत्रीपद पर नियुक्त कर दिया। ११. असत्य का परिणाम नगर के बाह्यभाग में छोटा-सा गुरुकुल। वह वनराजि से आच्छादित, सुरम्य और एकान्त स्थान में स्थित तथा विद्यार्जन का सुप्रसिद्ध केन्द्र था। उसके संचालक थे उपाध्याय क्षीरकदम्बक। उसके पास तीन छात्र विद्याभ्यास कर रहे थे। एक था राजा का पुत्र वसु, दूसरा स्वयं उपाध्याय क्षीरकदम्बक का पुत्र पर्वतक तथा तीसरे छात्र का नाम था नारद। तीनों का अध्ययनकाल समाप्त हो गया। तीनों अपने-अपने स्थान पर चले गए। क्षीरकदम्बक का पुत्र पर्वतक राजपुरोहित के पद पर आसीन हो गया। राजा का पुत्र वसु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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