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________________ २७४ सिन्दूरप्रकर सागरदत्त को सौंप दे। विमल के न चाहने पर भी सागरदत्त ने उसका सारा धन अपने अधिकार में ले लिया और वह विजयपुर की ओर प्रस्थित हो गया। इधर विमल श्रेष्ठी उदास हो गया। वह न्याय की इच्छा से विजयपुर के महाराज यशोजलधि के पास पहंचा। उसने सारी घटना से राजा को अवगत कराया और न्याय की मांग की। राजा ने नगरसेठ कमल और सागरदत्त को भी राजसभा में बुलवा लिया। राजा ने जानकारी लेते हुए सागरदत्त से पूछा-तुमने विमल श्रेष्ठी का धन क्यों लिया? सागरदत्त ने भी प्रारम्भ से लेकर अन्त तक का सारा वृत्तान्त राजा को सुना दिया और मध्यस्थ एवं साक्षीरूप में कमलसेठ को यह कहकर आगे कर दिया कि महाराज! आप इनसे भी पूछकर पुष्टि कर लीजिए। राजा के पूछने पर नगरसेठ ने कहा-राजन् ! सागरदत्त ने जो कुछ कहा है वह सत्य है। सागरदत्त ने विमल का जो धन लिया है वह न्याय के अनुसार लिया है। उसने कोई अनुचित कार्य नहीं किया। राजा ने नगरसेठ को धन्यवाद देते हुए कहा-श्रेष्ठिवर! तुमने अपने पुत्र को भी गौणकर सत्य का पक्ष लिया है यह मेरे लिए हर्षातिरेक का विषय है। तुम्हारे सत्यव्रत की जितनी प्रशंसा की जाए वह उतनी ही थोड़ी है। मैं अपने आपको गौरवशाली मानता हूं कि मेरे नगर में तुम जैसे सत्यवादी भी हो। राजा ने रुष्ट होकर विमल से कहा-तू असत्यभाषी है। तुझे पता है कि घटना को असत्यरूप में प्रस्तुत करने का दण्ड क्या होता है? उसका दंड है जीभ काटना। तू नगरसेठ का पुत्र है, इसलिए मैं तुझे इस दण्ड से मुक्त करता हूँ। किन्तु तुझे सागरदत्त से क्षमा मांगनी होगी। राजा के कहने पर विमल सागरदत्त के पैरों में लुठ गया और अपने कृत अपराध की क्षमा मांगने लगा। सागरदत्त ने भी अपनी करुणा बहाते हए घोषणा की कि मैं कुछ धन और बढ़ाकर इसका समस्त धन वापिस करता हूं। इस घोषणा से चारों ओर सागरदत्त की प्रशंसा होने लगी। वातावरण बड़ा ही हर्षमय और प्रमोदमय बन गया। राजा ने सागरदत्त से अगला प्रश्न करते हुए पूछा कि तुमने बिना देखे, बिना सुने यह सब कैसे जाना? कैसे बताया? सागरदत्त बोलाराजन्! यह सब मैंने लक्षणों के आधार पर जाना और स्वयं के बुद्धिबल से बताया। गाड़ी के जाने के मार्ग में स्थान-स्थान पर आम की डाल के टुकड़े गिरे हुए थे। उनको देखकर मैंने जान लिया कि आमों से भरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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