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सिन्दूरप्रकर
और विशुद्धतम बनाते हुए केवलज्ञानी हो गए।
इसलिए कहा है-सर्व प्रकार की हिंसा से उपरत होना ही उत्कृष्ट अहिंसा है।
१०. सत्य की विजय
विजयपुर नगर अपनी विशालता और धनाढ्यता के कारण लोगों के दिलों में बसा हुआ था। वहां के सप्तभौम अथवा पंचभौम हर्म्य बड़े ही लुभावने लग रहे थे। सुन्दर और स्वच्छ राजपथ। लम्बे-चौड़े बाजार और उनमें पंक्तिबद्ध दुकानें पथिकों का ध्यान आकृष्ट कर रही थीं। उन दुकानों पर ग्राहकों की अच्छी-खासी भीड़ लगी रहती थी। जीवन में काम आने वाली प्रत्येक वस्तु वहां आसानी से मिल जाती थी।
राजा यशोजलधि विजयपुर नगर के अधिशास्ता थे। वे एक न्यायप्रिय, प्रजावत्सल और प्रतापी राजा थे। उनका यश चारों ओर फैला हुआ था। उसी नगर में अनेक लब्धप्रतिष्ठ और धनिक श्रेष्ठी भी निवास करते थे। उनमें कमल नाम का एक नगरसेठ भी था। वह नगरसेट के पद से सम्मानित था। वह अच्छा व्यापारी और दानी था। वह सत्यवादी था। लोगों के मन पर उसकी सत्यवादिता और परोपकारिता की छाप थी। श्रेष्ठी कमल की भार्या का नाम कमलश्री था। वह भी पति के गुणों का अनुसरण करने वाली थी। उनके एक पुत्र था। उसका नाम था विमल। नाम अपने आप में सुन्दर और सार्थक था, किन्तु पुत्र का आचरण नाम के अनुरूप नहीं था। जैसे दीपक काजल को उगलता है वैसे ही श्रेष्ठिपुत्र अपनी अप्रामाणिकता, असत्यवादिता आदि दुराचरणों के कारण कुलगौरव पर काजल पोत रहा था। पिता ने उसे बार-बार समझाने का प्रयत्न किया, पर उसका वह प्रयत्न 'प्रवाहे मूत्रितं' की भांति निरर्थक हो गया।
एक बार पुत्र विमल ने व्यापार के मिष से परदेश-गमन करना चाहा। पिता नहीं चाहता था कि उसका पुत्र परदेश जाए। क्योंकि देश में काफी अच्छा कारोबार था। प्राप्त कारोबार को छोड़कर अन्य कारोबार में हाथ डालना और फिर उसे संभालना सहज-सरल कार्य नहीं था। पिताश्री कमल ने उसे येन केन प्रकरेण रोकना चाहा, पर पुत्र के अत्यधिक आग्रह के सामने पिताश्री को भी झुकना पड़ा। अन्त में नगरसेठ ने विवश होकर उसे समुद्रमार्ग से जाने की अनुमति न देकर स्थलमार्ग
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