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________________ उद्बोधक कथाएं २६९ रही थी। वे समाधान की भाषा में उसे समाहित देखना चाहते थे। उन्होंने पुनः उसी प्रश्न को प्रस्तुत करते हुए पूछा-भगवन् ! क्या वे नरकगामी ही रहेंगे अथवा उनकी गति सुधरेगी भी। अब वे आयुष्य को पूरा करें तो कहां जाएंगे? भगवान ने कहा-प्रथम स्वर्ग में। राजा का मन कुछ आश्वस्त हुआ, पर पूरा आश्वस्त नहीं हुआ। वे राजर्षि को और अधिक ऊंचाइयों पर आरोहण करते हुए देखना चाहते थे। राजा पुनः पुन: भगवान से पूछते जा रहे थे और भगवान क्रमशः दो, तीन, चार आदि स्वर्गारोहण की श्रेणियों का प्रतिपादन कर रहे थे। कुछ ही क्षणों बाद महामुनि प्रसन्नचन्द्र विशुद्धतमभावों की श्रेणी में आरूढ हुए। तभी भगवान महावीर ने उद्घोषणा करते हुए कहाराजन्! अब राजर्षि को केवलज्ञान हो गया है। उन्होंने चार घनघाती कर्मों का क्षय कर दिया है। आकाश में देवदुन्दुभियां बजने लगी। देवता स्वर्ग से उतरकर भूमि पर आने लगे। चारों ओर महोत्सव की आभा बिखरने लगी। राजा श्रेणिक अब भी हर्ष और विस्मय के झूले में झूल रहे थे। वे उतार-चढ़ाव के रहस्य को जानना चाहते थे। वे समझ नहीं सके कि जो मुनि सप्तम नरक तक पहुंच जाए वे पुनः केवलज्ञान की भूमिका पर कैसे आ सकते हैं? ___भगवान ने उनकी इस गुत्थी को सुलझाते हुए कहा-श्रेणिक! हिंसा केवल शरीर से होती है, ऐसा नहीं मानना चाहिए, वह मन से वचन से और भाव से भी हो सकती है। राजर्षि दीक्षा लेते ही सब प्रकार की हिंसा से उपरत हुए। वे जब तक अहिंसक-चेतना में रहे तब तक वे पापकर्मों के बन्धन से सर्वथा मुक्त थे, किन्तु किसी के कुछ कहने पर वे विचलित हो गए, पुत्र का ममत्व और राज्यसत्ता की लोलुपता का भाव उनमें उत्पन्न हो गया। उन्हीं के कारण वे अहिंसा की भूमिका से हिंसा की भूमिका पर उतर आए, आत्मा से पापात्मा बन गए। उनकी विचारधारा मलिन और कलुषित हो गई। बिना किसी शस्त्र का ग्रहण किए ही वे मानसिक और भावात्मक हिंसा में प्रवृत्त हुए। इसलिए उन्होंने अपने अशुभ अध्यवसाय और अशुभ परिणामधारा से सप्तम नरक तक के कर्मों का बन्धन कर लिया। जब उन्हें अपनी संयमपर्याय का बोध हुआ तो पुनः वे आत्मा की ओर मुड़े, अहिंसा की चेतना की ओर लौटे और अपने अध्यवसायों को शुक्लध्यान की धारा से क्रमशः विशुद्ध, विशुद्धतर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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