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सिन्दूरप्रकर
ही बात में उन्होंने पूछ लिया- भगवन् ! राजर्षि प्रसन्नचन्द्र की साधना को देखकर लगता है कि उन्होंने काफी ऊंचाई को प्राप्त कर लिया है। काश! वे इस समय आयुष्य को पूरा कर जाएं तो कहां उत्पन्न होंगे ?
प्रथम नरक में, भगवान ने कहा ।
राजा श्रेणिक विस्मय में डूब गए। सोचा, भगवान पर अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। फिर यह विपर्यास क्यों? कुछ क्षण बाद राजा श्रेणिक ने पुनः उसी प्रश्न को दोहराया - भंते! अगर अभी वे जीवनमुक्त हो जाएं तो उनकी क्या गति होगी ?
भगवान- दूसरी नरक ।
उत्तर सुनते ही राजा असमंजस में पड़ गए। सोचने लगे कि मैं जिनको उत्कृष्ट समझ रहा हूं, उनकी यह गति । पुनः राजा की जिज्ञासा मुखर हुई। फिर वही प्रश्न ।
भगवान ने कहा- तीसरी नरक ।
यह क्या? राजा ने सोचा। मेरे प्रत्येक प्रश्न के साथ नरक की वृद्धि का कारण क्या है? वे पूछते गए और नरक की वृद्धि होती गई । भगवन्! अब वे मृत्यु को प्राप्त हो तो..... ?
भगवान बोले- सातवीं नरक |
इधर प्रश्नों का उत्तर पाकर राजा श्रेणिक कुछ अन्यमनस्क - से हो गए। उधर राजर्षि अभी भी शत्रुओं से युद्ध कर रहे थे। अचानक उनका हाथ शत्रुओं को मौत के घाट उतारते - उतारते मुकुट से प्रहार करने के लिए अपने मस्तक की ओर लपका। पर वहां मुकुट कहां था ? जिस दिन उन्होंने श्रामण्य को स्वीकार किया था उसी दिन से राजसी ठाठ-बाट और राजसी वेशभूषा छूट गयी थी। वे संभले । उन्हें अपने साधुत्व का भान हुआ। वे अपने आपको धिक्कारते हुए सोचने लगे - अरे! कौन किसका पुत्र और किसका कौनसा साम्राज्य ? क्या मैं पुनः ममत्व की परिक्रमा में निकल पड़ा, चला तो था निर्ममत्व साधना में साधनापथ को भूलकर मैं साधनाच्युत हो गया। मैं किससे लड़ रहा हूं? लड़ना तो था मुझे अपने कर्मों से। मैंने सारे संसार के प्राणीमात्र को अपना मित्र बना लिया तब मेरा शत्रु है ही कौन ? मैं श्रमण हूं, संयत हूं, विरत हूं। इस प्रकार आत्मालोचन करते हुए वे पुनः आत्मोन्मुखी बन गए, आर्त्त- रौद्र ध्यान से हटकर धर्मध्यान की श्रेणी में अवस्थित हो गए ।
महाराज श्रेणिक की जिज्ञासा अभी भी अन्तर्मन में कल्लोल कर
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