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उद्बोधक कथाएं
२६७ हैं तो कभी नकारात्मक। कभी ऐसे शुभ अध्यवसाय आते हैं जो जीवन को एक ही छलांग में शिखर तक पहंचा देते हैं तो कभी ऐसे अशुभ अध्यवसाय भी जागते हैं जो समूचे जीवन का पतन कर देते हैं।
राजर्षि प्रसन्नचन्द्र अभी तक अपनी निर्मल ध्यानधारा में प्रवाहित हो रहे थे, पर एक निमित्त ने उनकी भावधारा को विपरीत दिशा में मोड़ दिया। ___महाराज श्रेणिक की सवारी के पीछे-पीछे सुमुख और दुर्मुख दूत भी चल रहे थे। उन्होंने ध्यानस्थ मुनि को देखा। दुर्मुख ने ईर्ष्यावश व्यंग्य कसते हुए अपने साथी दूत से कहा-अरे सुमुख! देखो, इस ढोंगी साधु को, यह साधना का प्रदर्शन कर रहा है। इसे तनिक भी लज्जा/शर्म नहीं आई कि यह एक नाबालिग पुत्र को राज्य का भार सौंपकर स्वयं आंख मूंदकर यहां खड़ा हो गया। उस बालक को शत्रुसेना ने घेर लिया है। वह उस विशाल सेना से लोहा कैसे ले सकेगा? न तो उसकी भुजाओं में बल है और न ही उसे युद्ध करने का अभ्यास है। जिसके दाढी-मूंछ के बाल भी पूरे न उगे हों, उसे राज्यसत्ता देना मात्र अपनी कायरता को छिपाना है। यह पलायनवृत्ति नहीं तो और क्या है? मुझे तो तरस आ रहा है उस बालक पर। वह एकाकी बालक निर्दयतापूर्वक शत्रु के हाथ मारा जाएगा और राज्य भी दूसरों के हाथ चला जायेगा। खैर ! यह अभी भी संभल जाए तो अच्छा है।
अचानक दूत के वे शब्द राजर्षि के कानों से टकराए। वे शब्दबाण अन्तःस्तल को बींध गए। जो महाश्रमण कुछ क्षण पूर्व तक अन्तर्यात्रा में यात्रायित थे अब वे बहिर्यात्री बन गए। अब उन्हें मात्र पुत्र और राज्यशासन सामने दिखने लगा। उन्हें लगा कि जिस व्यक्ति ने जो कहा है वह सचोट ही कहा है। बात बिल्कुल सत्य है। वह बेचारा पुत्र कब, कैसे लड़ेगा? विशाल सेना के सामने वह कब तक ठहर सकेगा? अवश्य ही उसे सहयोग की अपेक्षा है। पिता होने के नाते मैं उसका सहयोगी हो सकता हूं। यह सोचते ही राजर्षि मन की पांखों से पोतनपुर पहुंच गए, तलवार लेकर उतर पड़े रणभूमि में। मन ही मन उन्होंने कितने शत्रुसुभटों को धराशायी बना डाला। कहां तो वे कर रहे थे आत्मा से युद्ध और अब करने लगे शत्रु से युद्ध। दोनों ओर से वार-प्रतिवार हो रहा था। इधर राजर्षि प्रसन्नचन्द्र का मानसिक युद्ध चल रहा था उधर महाराज श्रेणिक अपनी अन्तर्जिज्ञासाओं का समाधान भगवान से करना चाहते थे। बात
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