________________
सिन्दूरप्रकर हुए थे। वे दोनों हाथों को ऊंचा किए सूर्य के आतप में आतापना ले रहे थे। उनका देदीप्यमान आभामंडल, क्षात्रतेज तथा ध्यान की गहराइयों में निमज्जन करने वाली मुखाकृति सहज ही वहां से गुजरने वाले हर पथिक को क्षणभर के लिए रोक लेती थी। जो भी पथिक वहां से गुजरता वह उस प्रतिमासदृश आकृति को देखकर भावविह्वल हो जाता, उसकी
आंखें नम जाती, मन ही मन वह उस त्यागीपुरुष को भाववन्दना करता हुआ समवसरण की ओर बढ़ जाता था। वे महामुनि थे-राजर्षि प्रसन्नचन्द्र। वे पोतनपुर के अनुशास्ता थे। भगवान महावीर की वाणी सुनकर उनका मन संसार से विरक्त हुआ और वे अपने छोटे पुत्र को राज्य का भार सौंपकर दीक्षित हो गए। ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए वे भगवान के साथ ही राजगृह नगरी में आए और भगवान की अनुज्ञा प्राप्त कर समवसरण के समीप ही तपोध्यान की साधना में अवस्थित हो गए थे। सैंकड़ों लोग उनके आस-पास से आ जा रहे थे, फिर भी वे ध्यान-साधना में एकाग्र बने हुए बाह्य-जगत् से सर्वथा अनभिज्ञ थे।
जय-जयकारों के नाद से महाराज श्रेणिक भी वहां से गुजरे, पर उन शब्दों का उन पर कब असर होने वाला था? वे शब्दों से शब्दातीत, काल से कालातीत और व्यग्रता से व्यग्रातीत हो चुके थे। ध्यान के संसार का स्वरूप ही कुछ ऐसा होता है जहां आत्मदर्शन के सिवाय कुछ नहीं मिलता।
महाराज श्रेणिक भी उस सौम्यमुद्रा को देखकर कुछ क्षण के लिए वहां रुके। उन्होंने अपने सैनिकों से पूछा-ये महामुनि कौन है? यहां कैसे खड़े हैं?
राजन् ! ये महामुनि भगवान महावीर के शिष्य हैं। अपनी उत्कट साधना के लिए यहां खड़े हैं। इन्होंने भगवान महावीर की आज्ञा लेकर कठोर साधना करने का संकल्प ग्रहण किया है।
ओह! ऐसे महामुनि को धन्य है, जो जीवन को सार्थक बनाने और भवसागर से पार उतरने का मार्ग खोजते हैं।
राजा श्रेणिक का अन्तःकरण सहज ही उस साधना से अभिभूत था। वे मन ही मन श्रद्धा से नमन करते हुए अन्तर्जिज्ञासाओं के साथ वहां से प्रस्थित हो गए।
__साधना का मार्ग भावनात्मक परिणामों से जुड़ा हुआ है। कभी जीवन में अच्छे भाव आते हैं तो कभी बुरे। कभी सकारात्मक भाव आते
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org