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सिन्दूरप्रकर
माता के कथनानुसार विधि को संपन्न किया और देवी माता को भोग लगाकर शेष भोगसामग्री प्रसाद के रूप में घर के सदस्यों में बांट दी।
अब प्रमुखपद की शपथ का समय भी नजदीक था। परिवार के छोटे-मोटे सभी सदस्य जिज्ञासा और उत्सुकता लिए घर के विशाल प्रांगण में खड़े थे। सुलस भी पूजाविधि संपन्न कर वहां पहुंच गया। घर के बुजुर्ग व्यक्ति ने एक थाली में अक्षत-कुंकुम रोली आदि सजाकर उसकी आरती उतारी। उसे एक ऊंचे स्थान पर खड़ा कर दिया गया। बुजुर्ग ने सुलस के हाथ में तलवार देते हुए कहा - वत्स! यह तलवार शौर्य की प्रतीक है। अब तुम प्रमुखपद के दायित्व का तिलक निकलवाने से पूर्व इस तलवार को भैंसे पर चलाकर अपनी परम्परा का निर्वहन करो । यह हमारी कुल-परम्परा है।
यह सुनते ही सुलस पर मानो तुषारापात हो गया। उसकी करुणा ऐसा क्रूर कार्य करने की अनुमति नहीं दे रही थी । उसकी अहिंसक चेतना किसी भी परिस्थिति में किसी निरीह और मूक प्राणी की बलि नहीं देना चाहती थी। उसने मन ही मन सोचा -- क्या मेरी आत्मा जैसी आत्मा इसमें नहीं है? जो दुःख और पीड़ा मुझे होती है वह दुःख और पीड़ा इसको क्यों नहीं होगी? क्या इस पशु का वध करना मेरा अपना वध नहीं है? प्राण किसे प्रिय नहीं है? क्या कोई मरना चाहता है ? ऐसा सोचकर सुलस ने उस बुजुर्ग व्यक्ति से कहा - तातश्री ! क्या इस विधि को दूसरे प्रकार से संपन्न नहीं किया जा सकता? क्या मुझे तलवार चलाना अनिवार्य ही है ?
बेटा! तुम अभी समझे नहीं । यह अपना पुश्तैनी धन्धा है। जो कोई इस पद पर आता है उसे इस रस्म को निभाना ही पड़ता है। इस रस्म को निभाकर ही वह घर के प्रमुखपद का आसन ग्रहण करता है । तुम्हारे पिता, दादा, परदादा आदि ने आज तक इस परम्परा को निभाया है। और भविष्य में भी यही परम्परा चलेगी।
सुलस बोला -- आप सत्य कह रहे हैं। मेरे पिताश्री कालसौकरिक ने भी मरते समय यही कहा था कि तुम्हें इस कार्य को संभाल कर रखना है, कहीं उसमें कोई न्यूनता न आ जाए ? पर आज मेरा मानस इस क्रूर कृत्य को करने के लिए सर्वथा इनकार कर रहा है। मेरे हाथ इस पशुप्राणी पर चलते हुए कम्पित हो रहे हैं। मैं चाहता हूं कि पहले मैं अपने पैर पर तलवार चलाकर उस पीड़ा का अनुभव कर लूं, जिससे
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