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उद्बोधक कथाएं
२६३ पुनः सकल संघ ने एकत्रित होकर मुनि स्थूलभद्र को वाचना देने के लिए आचार्य भद्रबाहु से विनती की। सबकी भावना को सुनकर आचार्य ने उनको वाचना देना स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप उन्होंने चार पूर्वो का ज्ञान तो दिया, किन्तु शाब्दिकज्ञान दिया, अर्थज्ञान नहीं दिया। ___आचार्य संघशक्ति के उपासक होते हैं। वे संघ को प्राण और त्राण मानते हैं। उनका अस्तित्व संघ से भिन्न नहीं होता और संघ का अस्तित्व उनसे भिन्न नहीं होता। दोनों एकमेक होते हैं। वे संघ में ज्ञान-दर्शनचारित्र की त्रिवेणी प्रवाहित करते हैं, संघ की सारणा-वारणा करते हैं और संघ के उन्नयन में अपनी शक्ति का नियोजन करते हैं। इसलिए आचार्य भद्रबाहु ने संघ को प्रमुख स्थान दिया, स्वयं की साधना को गौण किया। तीर्थंकर भी सर्वप्रथम संघ को प्रणाम करते हैं। धन्य है ऐसे संघ को, उसकी शक्ति को। इसलिए कहा गया--'संघे शक्तिः कलौ युगे।'
८. हार गई हिंसा राजगृह नगर। वहां का प्रसिद्ध कालसौकरिक कसाई। वह मांस का बहुत बड़ा व्यापारी था। वह प्रतिदिन पांच सौ भैंसों को मारता था। आज उसके घर में विशेष चहल-पहल थी। अनेक सगे-संबन्धी विशेष प्रयोजन से वहां एकत्रित हुए थे। प्रीतिभोज के साथ-साथ आज शुभ मुहर्त में कालसौकरिक के पुत्र 'सुलस' को प्रमुखपद के दायित्व का तिलक किया जाना था। घर की नारियां मंगलगीत गाकर सुलस की वर्धापना कर रही थीं। घर को साफ-सुथरा करके उसे दीपपंक्ति से सजाया गया था। पारिवारिकजन उस विशेष समारोह को कई वर्षों के बाद देख रहे थे।
परिवार वालों ने सुलस को स्नानादि कराकर उसे वस्त्रालंकारों से सुसज्जित किया। फिर वे उसे पूजा-गृह में ले गए। वृद्धा माता ने अपने पुत्र को एक मखमली चादर बिछी चौकी पर बिठाया। उसके हाथ में नारियल, अक्षत आदि देते हुए माता ने कहा-वत्स। यह अपने कुलदेवी का छोटा-सा मन्दिर है। कोई भी शुभ कार्य करने से पहले माता की पूजा-अर्चना करनी होती है। उसे भोग चढ़ाना होता है। तुम धूप-दीप, नैवेद्य आदि से कुलदेवी की मंत्रों से स्तुति करो। जब वह पूरी हो जाए तब तुम पवित्र जल को छिटक कर माता को भोग लगा देना। पुत्र ने
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