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________________ २६२ सिन्दूरप्रकर स्वीकृति नहीं देता, जो संघशासन की अवमानना करता है, वह व्यक्ति संघ से बहिष्कृत करने योग्य होता है। आचार्य भद्रबाहु का यह उत्तर सुनकर श्रमणसंघ प्रसन्नता से झूम उठा। अब आचार्य भद्रबाहु स्वयं ही अपने कथन से अपनी पकड़ में आ गए। तत्काल श्रमणसंघ एकस्वर से बोल उठा-भन्ते! तब तो आपने भी संघ की भावना को अस्वीकार कर संघ की अवमानना की है, इसलिए आप भी उस प्रायश्चित्त के भागी हैं। ____ आचार्य बोलें तो क्या बोलें? बात यथार्थ और युक्तिपूर्ण थी। अन्ततः आचार्य उस अकीर्तिकर प्रवृत्ति से संभल गए। उन्होंने सबको आश्वस्त और सन्तोष देते हुए कहा-मैं संघ की आज्ञा को सर्वोपरी मानता हूं, उसे सम्मान देता हूं। मैं वर्तमान में महाप्राण-ध्यान की विशिष्ट साधना में संलग्न हूं। इस ध्यान-साधना से चौदह पूर्वो की विशाल ज्ञानराशि को अन्तर्मुहूर्त में परावर्तन करने की क्षमता आ जाती है। अभी इस साधना की संपन्नता अवशिष्ट है, इसलिए मैं साधना के क्रम को छोड़कर पाटलिपुत्र नहीं जा सकता, फिर भी जो मेधावी श्रमण दृष्टिवाद की वाचना लेना चाहते हैं, वे यहां आ जाएं। मैं उनको वाचना देने का प्रयत्न करूंगा। श्रमणसंघ ने आचार्य भद्रबाहु के निर्देश को स्वीकार किया। संघ वहां से प्रस्थित हो गया। शेष संघ ने इस सुखद संवाद को जाना। सभी ने प्रसन्नता का अनुभव कर उस ज्ञान-महायज्ञ में सम्मिलित होने का प्रयत्न किया। संघ की आज्ञा प्राप्त कर स्थूलभद्र आदि पांच सौ श्रमण आचार्य भद्रबाहु के पास वाचना ग्रहण करने के लिए नेपाल पहुंच गए। आचार्य प्रतिदिन उन्हें सात वाचनाएं देते थे। दृष्टिवाद का स्वीकरण बहुत कठिन था और वाचना का क्रम भी मन्दगति से था। पांच सौ शिष्यों में केवल स्थूलभद्र मुनि ही अर्थ सहित दस पूर्वो का ज्ञान कर पाए और चमत्कार दिखाने के कारण शेष चार पूर्वो के ज्ञान को वे अर्थ सहित नहीं ले सके। अत्यधिक अनुनय-विनय करने के पश्चात् भी आचार्य भद्रबाहु ने उनको शेष चार पूर्वो का ज्ञान देना स्वीकार नहीं किया। आर्य स्थूलभद्र ने पुनः अपनी भूल को स्वीकार करते हुए विनम्र निवेदन किया-प्रभो! पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद होने वाला है। मैं उसमें निमित्त न बनूं, इसलिए प्रणति-पूर्वक आपको वाचना के लिए बार-बार निवेदन कर रहा हूं। फिर भी आचार्य भद्रबाहु ने उनको वाचना देने से इनकार कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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