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________________ उद्बोधक कथाएं भद्रबाहु को विनतीपूर्वक निवेदन करते हुए कहा-प्रभो! अब आप ही एकमात्र दृष्टिवाद के ज्ञाता हैं। सकल संघ चाहता है कि आप वहां पाटलिपुत्र पधार कर मुनिजनों को अपनी अमूल्य ज्ञानराशि से लाभान्वित करें। यह सुनकर आचार्य भद्रबाहु चिन्तन में पड़ गए। वे नहीं चाहते थे कि महाप्राण की साधना अधूरी छोड़कर अन्यत्र कहीं जाया जाए। उन्होंने इसे अपनी साधना में बाधा समझते हुए संघ की विनती को अस्वीकार कर दिया और कहा-मेरा आयुष्य कम है। इतने कम समय में मैं दृष्टिवाद की वाचना कैसे दे पाऊंगा? फिर मैंने अपने आपको आत्महितार्थ कार्य में भी नियुक्त कर रखा है, इसलिए मैं वाचना देने में असमर्थ हूं। वह विशाल संघ भद्रबाहु के मुख से ऐसा उत्तर सुनकर निरुत्साहित हो गया। सबके मन में निराशा छा गई। सारा संघ अन्यमनस्क होकर वापिस लौट आया और उसने शेष संघ को सारा संवाद कह सुनाया। जब संघ के अन्य सदस्यों ने यह समाचार सुना तो उनका मन भी अन्यन्त क्षुब्ध हो गया, क्योंकि संघ में आचार्य भद्रबाहु के सिवाय दृष्टिवाद की वाचना देने वाला कोई नहीं था। पुनः संघ के सदस्यों ने मिलकर चिन्तन किया कि हमें अपनी ओर से सतत प्रयास करते रहना चाहिए। हो सकता है कि आचार्य भद्रबाहु ने एक बार की प्रार्थना को स्वीकार नहीं किया, किन्तु दूसरी, तीसरी बार प्रार्थना करने पर संभवतः उनका मानस बदल जाए और वे वाचना देने के लिए तैयार हो जाएं। काफी दिन बीतने पर सारे संघ ने पुनः प्रार्थना हेतु एक संघ भेजने का निर्णय लिया। संघ वहां से रवाना होकर नेपाल की भूमि पर पहुंचा। संघ के सदस्यों ने पुनः अपनी विनती दोहराते हुए आचार्य भद्रबाहु से निवेदन किया-भगवन्। हम संघ के सारे सदस्य मिलजुल कर पुनः अपनी प्रार्थना को लेकर यहां उपस्थित हुए हैं। अब हमारा आपसे एक ही प्रश्न है कि जो संघ की आज्ञा को अस्वीकार करता है उसके लिए किस प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है। श्रुतसंपन्न आचार्य भद्रबाहु प्रस्तुत प्रश्न पर शास्त्रीय विमर्श करते हुए कुछ गम्भीर हो गए। संघ जानता था कि श्रुतकेवली कभी मिथ्याभाषण नहीं करते। उनका कथन सर्वदा यथार्थ होता है। वे जो कुछ भी कहेंगे न्याय की तुला पर तोलकर ही कहेंगे। उसमें कभी पक्षपात नहीं होगा। आचार्य भद्रबाहु ने भी चिन्तनपूर्वक स्पष्ट और यथार्थ तथ्य का निरूपण करते हुए कहा-श्रावको ! जो आगम-वाचना प्रदान करने के लिए अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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