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सिन्दूरप्रकर था? उन्होंने उसे लूटकर सारी पूंजी अपने अधिकार में कर ली। उधर गुरुजी का प्राणान्त हुआ तो इधर शिष्य सारी पूंजी को हाथ से गंवा बैठा। ___ यदि गुरु को ऐसा शिष्य मिल जाए और शिष्य को ऐसा गुरु मिल जाए तो दुर्गति के सिवाय क्या हाथ लग सकता है? इसलिए लोभी गुरु
और लोभी शिष्य किसी का उद्धार नहीं कर सकते। वे दोनों स्वयं डूबते हैं और दूसरों को भी ड्रबोते हैं। कहा भी है
'गुरु लोभी चेला लालची, दोनूं खेले दांव। दोनूं डूबे बापरा, बैठ पत्थर की नांव।'
७. संघशक्ति का निदर्शन जैन परम्परा में आचार्य भद्रबाहु एक तेजस्वी, यशस्वी और संघउन्नायक आचार्य थे। वे श्रुतपरम्परा में पांचवें श्रुतधर और अर्थ की दृष्टि से अन्तिम श्रुतधर थे। उन्होंने महाप्राण-ध्यान की विशिष्ट साधना की थी।
आचार्य भद्रबाहु को प्राचीन गोत्री कहकर वन्दन किया गया है। उसके आधार पर कहा जा सकता है कि वह गोत्र ब्राह्मण समाज में प्रचलित था। संभवतः उनका जन्म भी ब्राह्मण परिवार में हुआ। वे श्रुतधर आचार्य यशोभद्र के पास वीर निर्वाण १३९ (वि. पू. ३३१) में दीक्षित हुए। सतरह वर्ष पर्यन्त गुरु-उपासना में रहकर उन्होंने आगमों का गहन अध्ययन किया और अपने आचार्य से पूर्वो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्तकर एक कीर्तिमान स्थापित किया। आचार्य यशोभद्र के पश्चात् धर्मसंघ का दायित्व सम्भूतविजय ने संभाला। उसके बाद आचार्यपद का दायित्व मुनि भद्रबाहु के कन्धों पर आ गया। सारा धर्मसंघ आचार्य भद्रबाह जैसे सामर्थ्यवान्, श्रुतसंपन्न, अनुभवसंपन्न व्यक्तित्व को पाकर कृतार्थ और धन्य हो गया।
वीर निर्वाण की दसरी शताब्दी के मध्यकाल में जैनशासन को भयंकर दुष्काल सहना पड़ा। उचित भिक्षा के अभाव में अनेक श्रुतधर मुनि काल-कवलित हो गए। उस समय भद्रबाहु के अतिरिक्त कोई भी मुनि चौदह पूर्वो का ज्ञाता नहीं था। तब वे नेपाल की गिरि-कन्दराओं में महाप्राण-ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ को चिन्ता थी कि आगमनिधि की सुरक्षा रहे। वह ज्ञान गुरु-परम्परा से आगे से आगे बढ़ता रहे। इस चिन्ता से श्रमण संघाटक नेपाल पहुंचा। श्रमणसंघ ने आचार्य
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