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________________ उद्बोधक कथाएं २५९ गए। क्योंकि उनके मन में लोभ समाया हुआ था। तीर्थयात्रा बिना व्यय के हो नहीं सकती थी । शिष्य भी तत्काल गुरुजी की भावना को भांप गया। गुरुजी कुछ बोलें उससे पूर्व ही शिष्य ने उनको समाहित करते हुए कहा - गुरुजी ! आप तीर्थयात्रा के लिए व्यय की चिन्ता न करें। आपके एक भक्त ने उस व्यय की सारी जिम्मेदारी ले ली है। यह सुनते ही गुरुजी भी तत्काल बोल उठे-यदि कोई उसका व्यय उठाता है तो फिर तीर्थयात्रा करने में क्या कठिनाई है ? गुरुजी तीर्थयात्रा के लिए राजी हो गए और शिष्य अपनी योजना की क्रियान्विति के लिए। कुछ दिनों के पश्चात् अच्छा दिन देखकर गुरु और शिष्य दोनों ही तीर्थयात्रा के लिए निकल गए। मार्गगत जितनी व्यवस्थाओं की अपेक्षा थी वे सब यात्रा से पूर्व ही जुटा ली गई । शिष्य के मन में पाप पल रहा था। वह तो इसी ताक में था कि गुरुजी को किसी बहाने धोखा देकर मैं उन्हें किसी भयानक जंगल में छोड़ दूं और स्वयं गुरुजी की गिन्नियों से भरी नौली को लेकर चम्पत हो जाऊं । बहुत दूर जाने पर एक बीहड़ और डरावना जंगल सामने आ गया। शिष्य ने अपनी योजना साकार करने का वह उपयुक्त स्थान समझा । उसने कुटिलता से बात करते हुए कहा - गुरुजी ! यह स्थान चोरों और लुटेरों का है। आपके पास में कोई जोखिम तो नहीं है ? गुरुजी कहें तो क्या कहें? उनके पास में गिन्नियों की नौली थी। गुरुजी जरा सहमते हुए बोले - शिष्य! पास में नौली तो है । शिष्य ने कहा -- गुरुजी ! यदि सामने से कोई लुटेरा आ गया तो वह पहले आपकी ही तलाशी लेगा और आपको ही मारेगा। इसलिए अच्छा है कि आप कुछ समय के लिए यह नौली मुझे दे दें। जंगल पार होने पर यह नौली मैं आपको पुनः लौटा दूंगा। गुरुजी को नौली निकाल कर देना मानो कलेजा निकालने के समान था। पर परिस्थिति व्यक्ति से क्या कुछ नहीं करा देती ? गुरुजी ने नहीं चाहते हुए भी परिस्थितिवश कांपते हाथों से वह नौली शिष्य को सौंप दी। शिष्य नौली को पाकर मानो निहाल हो गया। उसकी सारी योजना सफल हो गई। अब उसने गुरुजी को ठिकाने लगाने की बात सोची। चलते-चलते रास्ते में एक बड़ा-सा गड्ढा देखकर शिष्य ने गुरुजी को उसमें धक्का देकर उनका प्राणान्त कर दिया। अब शिष्य सारी पूंजी लेकर मन ही मन प्रसन्न होता हुआ अपने गांव लौट रहा था। रास्ते में उसे भी चोर मिल गए। दस चोरों के सामने उसका वश क्या चल सकता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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