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________________ २५८ सिन्दूरप्रकर ही मन सोचा-अच्छा हो यदि मेरे पीछे कोई योग्य शिष्य तैयार हो जाए। वह वृद्धावस्था में मेरी सेवा भी कर सके और पीछे से आश्रम को भी संभाल ले, पर योग्य युवक का मिलना मुश्किल था। बहुत प्रयास करने पर बाबा को एक नवयुवक मिल ही गया। उसकी उम्र लगभग पचीस वर्ष की थी। बाबा ने एक वर्ष तक उसे सम्यक् प्रकार से शिक्षण-प्रशिक्षण देकर तैयार कर लिया और एक दिन शुभ मुहूर्त में उसे शिष्यरूप में मूंड भी लिया। समय बीतने लगा। शिष्य भी कुछ ही दिनों में आश्रम की गतिविधियों से भलीभांति परिचित हो गया। गुरु तो लोभी थे ही, पर चेला लोभ के मामले में गुरु से भी दो कदम आगे था। चेला कमरे में बैठा रहता, फिर भी वह गुरु की निगरानी करता रहता कि गुरुजी प्रतिदिन क्याक्या करते हैं? एक दिन शिष्य की दृष्टि गिन्नियां गिनते हुए गुरु पर चली गई। उसने सोचा-अच्छा, गुरु के पास गिन्नियां भी हैं, इसलिए गुरुजी मेरी नजरों को बचाकर हिसाब-किताब करते रहते हैं। यदि गुरुजी भी रुपया-पैसा रखते हैं तो मैं क्यों नहीं रखू? यह सोचकर शिष्य भी धन की लालसा में फंस गया। लोभ की तरंगों ने उसे धनसंचय करने के लिए बाध्य किया। रुपए ऐंठने की दृष्टि से गुरु किसी धनी-मानी व्यक्ति को पकड़ते थे तो शिष्य रुपया लेने के लिए छोटी-मोटी आसामी को पकड़ता था। इस प्रकार दोनों ओर से रुपया इकट्ठा करने का धन्धा चलने लगा। बहुत परिश्रम करने पर भी शिष्य छोटी रकम को ही अर्जित कर सका। वह गुरु की तुलना कैसे करता? आखिर था तो गुरु से छोटा ही। ___जब जीवन में लोभ की चेतना होती है तो उसकी तृष्णा छोटी-मोटी वस्तु को पाकर कभी शान्त नहीं होती, वह और अधिक बढ़ जाती है। शिष्य की लोभ-चेतना में एकाएक एक तूफान आया और वह जैसे-तैसे गुरु की संपत्ति को ही हड़पने के लिए तैयार हो गया। एक दिन उसने एक उपाय खोज निकाला। सारी योजना बनाई और उस योजना की क्रियान्विति के लिए वह गुरुजी के पास पहुंचा। शिष्य के मन में कालिमा थी तो वाणी में मिठास। उसने गुरु को निवेदन करते हुए कहा-गुरुजी! बहुत दिनों से मेरे मन में रह-रहकर आ रहा है कि मैंने अभी तक कोई तीर्थयात्रा नहीं की। संभवतः आपने की होगी। यदि मैं आपके साथ तीर्थयात्रा कर लूं तो मैं अपने साधु जीवन को सफल मानूंगा। गुरुजी शिष्य की बात को सुनकर कुछ समय के लिए अनमने-से हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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