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________________ उद्बोधक कथाएं २५७ रहते थे। प्रतिदिन उनके पास अनेक लोग सत्संग करने के लिए आते थे। बाबाजी को रामायण-महाभारत आदि के अनेक घटना-प्रसंग, कहानियां, दोहे, चौपाइयां तथा भजन आदि कंठस्थ थे। वे कथावाचन में उनका प्रयोग कर लोगों को खुश कर देते थे और दान-दक्षिणा में रुपयों-पैसों की भी भेंट ले लेते थे। प्रायः लोग अपने घर से प्रतिदिन दोनों समय का भोजन भी भेज देते थे। इसलिए न उन्हें रसोई बनाने का श्रम था और न आश्रम की साफ-सफाई करने का। भक्तलोग ही भक्तिभावना से प्रेरित होकर सब काम संपादित करते थे। एक तरह से बाबाजी का जीवन निश्चिन्त और सुखी जीवन था। घर-परिवार छोड़ने पर भी बाबाजी के मन में लोभ की पराकाष्ठा थी। लोभ के वशीभूत होकर वे हमेशा अधिक से अधिक धन का संग्रह करना चाहते थे। साधना तो केवल दिखावा मात्र थी। वे सदा ऐसे धनी व्यक्तियों की ताक में रहते थे जो दिल खोलकर दान-दक्षिणा के रूप में उनकी झोली भर सकें। बाहर से भी अनेक यात्री गुरुदर्शनों के लिए आते थे। वे भी जाते समय अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार कुछ न कुछ भेंट अवश्य करते थे। इस प्रकार कुछ ही दिनों में बाबाजी के पास काफी धन संचित हो गया। वे प्रतिदिन रुपयों की गिनती कर मिलान करते रहते कि मुझे आज कितनी आय हुई है? भगवान महावीर कहते हैं कि जब-जब मनुष्य को लाभ होता है तो मन में लोभ का ज्वार भी उछाले मारता है। उसकी तृष्णा आकाश के समान विशाल हो जाती है। बाबाजी भी लोभ से आक्रान्त बने हुए थे। वे अहर्निश यही सोचते रहते थे कि मेरा धन और ज्यादा कैसे बढे? कब मैं धनपतियों की तुलना में आऊं? वे इसके लिए प्रयास भी काफी करते थे। बहुत कुछ पा लेने पर भी बाबाजी की तृष्णा का अन्त नहीं हो पाया। उन्होंने संचित रुपयों से गिन्नियां खरीद ली। वे उनको एक नौली में डालकर अपनी कमर में बान्धे रखते थे। धन से भय भी उत्पन्न होता है और अविश्वास भी। इसलिए बाबाजी को भय बना रहता था कि कोई मेरी गिन्नियों को चुरा न ले और न उन्हें किसी व्यक्ति पर विश्वास भी था कि जिसको वे गिन्नियां दे सकें। यद्यपि सन्तोष सन्तपुरुषों का परम धन है। साधु के पास धन होना उसके विनाश का हेतु होता है। पर बाबाजी रात-दिन धन पाने के ही स्वप्न संजोते रहते थे। अवस्था ढलने पर वे अपने आप में कुछ वृद्धत्व का भी अनुभव करने लगे। उन्होंने मन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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