________________
२५६
सिन्दूरप्रकर
कर सकता हूं। हरिकेश चांडाल ने राजा को विद्या सीखाने का प्रण स्वीकार कर लिया। शुभ समय और शुभ दिन में मंत्र-विद्या का प्रारंभ हुआ। राजा उच्च आसन पर आसीन था, विद्या सीखाने वाला चाण्डाल नीचे बैठा था । हरिकेश ने राजा को विद्याएं सीखानी शुरू की ।
मंत्र-विद्या को सीखने के लिए राजा ने एक बार नहीं, दो बार नहीं, चार बार नहीं, अनेक बार विद्या का अभ्यास किया। फिर भी वह विद्याओं को पकड़ नहीं सका। इस प्रकार विद्या अभ्यास करते-करते कुछ दिन बीत गए । राजा का मन व्यथित हो उठा। उसने सोचा- क्या मैं विद्याओं से सर्वथा वंचित रहूंगा अथवा मेरे में अज्ञान का पर्दा इतना अधिक सघन है, जिसके कारण ज्ञान का प्रकाश भीतर तक नहीं पहुंच रहा है। राजा ने अपनी समस्या को अभयकुमार के सामने प्रस्तुत करते हुए कहा - कुमार ! एक चांडाल इस प्रकार की विद्या को ग्रहण कर सकता है और मुझे यह विद्या नहीं आ रही है, इसका क्या कारण है ? अभयकुमार ने राजा को समाधान देते हुए कहा - महाराजन् ! विद्याप्रदाता का स्थान हमेशा ऊंचा होता है। वह एक प्रकार से विद्या गुरु होता है। आप हरिकेश को चांडाल मानकर उसे तुच्छ मान रहे हैं और उसी तुच्छता के कारण आप उसे नीचे बिठा रहे हैं। नीतिकार कहते हैं'एकाक्षरप्रदातारं यो गुरुं नैव मन्यते । जो व्यक्ति अक्षरमात्र ज्ञान देने वाला होता है उसे भी गुरुरूप में मानना चाहिए। वही व्यक्ति उसको गुरु मान सकता है जो अपने अहं का विसर्जन करता है, जीवन में विनय को स्थान देता है।
राजा को अपनी भूल का अहसास और विद्या के ग्रहण न होने का रहस्य ज्ञात हुआ। वह तुरन्त सिंहासन से नीचे उतरा और नीचे बैठ गया । उसने चांडाल को अपना विद्या गुरु मानकर उसे ऊंचे आसन पर बिठाया और विनयपूर्वक पुनः विद्या का अभ्यास करने लगा। कुछ ही दिनों में राजा ने उन दोनों विद्याओं को सिद्ध कर लिया।
६. गुरु लोभी चेलो लालची
नगर का बाह्य भूभाग । प्राकृतिक सुषमा को बिखेरता हुआ वहां का मनोहारी दृश्य । उस मनोरम वनसंपदा से सुरम्य बना हुआ वहां स्थित आश्रम। उस आश्रम में एक संन्यासी बाबा रहते थे। नगर के लोग उन्हें गुरुजी के नाम से पुकारते थे। एकाकी रहते हुए भी वे सदा भीड़ से घिरे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org