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उद्बोधक कथाएं
२५५ क्या तुम्हें आम खाने का इतना अधिक शौक है?
नहीं, महाराज! मुझे आम खाने का शौक नहीं है। अपनी घरेलू समस्या के निवारण के लिए मुझे परवशतावश आम तोड़ने पड़े।
तुम्हारी क्या परवशता और समस्या है, राजा ने पूछा।
महाराज! मेरी पत्नी के गर्भकाल चल रहा है। उसे आम खाने का दोहद उत्पन्न हुआ है। उस दोहद के पूरा न होने कारण वह कृशकाय होती चली गई। एक दिन उसने अपने दोहद की बात मेरे सामने रखी, आम खाने की इच्छा प्रकट की। मैंने उसे स्पष्ट कह दिया कि एक तो आजकल आम का मौसम नहीं है, फिर हम चांडाल हैं, हमारी आर्थिक स्थिति भी उतनी मजबूत नहीं है कि मैं कहीं से आम मंगाकर तुम्हें खिला सकू। इस स्थिति में मेरे सामने एक दुविधा थी कि मैं आम लाऊं तो कहां से लाऊं? दूसरी ओर दोहद की पूर्ति करना भी अत्यन्त अनिवार्य था। आखिर खोज और चिन्तन करते-करते मुझे ज्ञात हुआ कि नगर के बाहर आपश्री का सुन्दर बगीचा है। वहां अन्यान्य वृक्षों के अतिरिक्त आम के भी काफी पेड़ हैं। वे बारह महीने फल देते हैं। पर आमों को लेने के लिए भीतर जाना खतरे से खाली नहीं था। इतने प्रहरी और इतना कड़ा पहरा देखकर मेरे पैर वहीं ठिठुर गये, मन में भय व्याप्त हो गया। मैंने युक्तिपूर्ण उपाय काम में लिया। मेरे पास दो विद्याएं हैं-उन्नामिनी और अवनामिनी। मैंने अवनामिनी विद्या के द्वारा बाहर खड़े-खड़े ही डालियों को अपनी ओर झुका लिया। उनसे आमों को तोड़कर पुनः उन्नामिनी विद्या के द्वारा नीचे आई हुई उन शाखाओं को ऊपर कर दिया।
आमों को पाकर मेरी पत्नी अत्यन्त प्रसन्न और तृप्त हो गई। उसका दोहद सरलता से पूरा हो गया। उसको आम खाने का चस्का लग गया। उसके आग्रह को मानकर मैं दूसरे, तीसरे और चौथे दिन भी उसी युक्ति से आमों को तोड़कर घर लाया और पत्नी को दिए।
अरे! फिर तो तुम चोर नहीं, विस्मयकारी चोर हो। जिसके पास ऐसी विद्याएं हो, उसे विस्मयकारी चोर कहना ही सार्थक होगा।
तुम्हें पता है कि चोरी के अपराध का क्या दंड होता है? नहीं, महाराज मैं नहीं जानता। उसका दंड फांसी की सजा है। क्या उससे बचने का कोई उपाय है? यदि तुम दोनों विद्याओं को मुझे सीखा दो तो मैं तुम्हें सजा से मुक्त
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