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उद्बोधक कथाएं
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हराम करने वाला यह हरामी कौवा कहां से आ धमका ? यह उड़ाने पर भी नहीं उड़ता । इसे अब मैं मजा चखाता हूं। इस सोच के साथ ही उसने अंटी से उस पत्थर को निकाला और जोर से कौवे पर प्रहार करने के लिए उसे फेंक दिया। कौवा तो उड़ा ही उसके साथ उसका समूचा ऐश्वर्य भी लुप्त हो गया । इन्द्रजाल अथवा स्वप्नमाया की तरह वह मूल स्थिति में आ गया। अब उसके पास न तो मकान था और न सोने के लिए पलंग । वह नदी की चर में बैठा-बैठा अपने आपको ठगा ठगा-सा अनुभव कर रहा था। यह सारा प्रभाव उस चिन्तामणि रत्न का था । उसे केवल पत्थर मानने पर और उसका मूल्य न जानने के कारण उसने प्रमाद के वशीभूत होकर उसको फेंक दिया।
मनुष्यजन्म चिन्तामणि रत्न के समान है। जो उसे व्यर्थ गंवाता है, उसे सार्थक नहीं करता वह प्रमादी व्यक्ति भी उसी की तुलना में आता है।
५. गुरु का महत्त्व
राजसभा की कार्यवाही चल रही थी । महाराज श्रेणिक उच्च सिंहासन पर विराजित थे। अनेक सामन्त, दण्डनायक, सभासद् तथा नगर के गणमान्य व्यक्ति अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर आसीन थे। राजा श्रेणिक के परिपार्श्व में अमात्य अभयकुमार तथा कुछ अन्य सलाहकार भी बैठे हुए थे।
वनपालक ने मुख्यद्वार से प्रविष्ट होते हुए सभा में प्रवेश किया। वह महाराज श्रेणिक के चरणों को छूता हुआ उपस्थित सभी सभासीन सदस्यों को प्रणाम कर एक ओर खड़ा हो गया । वह कुछ कहना चाहता था, किन्तु कार्यवाही चलने के कारण वह कुछ कह नहीं सका । कुछ क्षणों तक वह मौन होकर उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहा था, जब वह कुछ कह सके । अन्त में सभा की कार्यवाही संपन्न हुई। महाराज श्रेणिक ने वनपालक की ओर देखते हुए पूछा- वनपालक! कहो, असमय में कैसे आना हुआ ?
महाराज ! निवेदन करने के लिए भी कोई असमय होता है। जब कोई आवश्यक निवेदन करना होता है तब उसके लिए समय की कोई पाबन्दी नहीं होती । वह असमय भी समय ही होता है।
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