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सिन्दूरप्रकर था तो कहीं वह सूखी थी। दरिद्र व्यक्ति घूमते-घूमते थक गया। वह नदी में एक स्थान पर विश्राम लेने के लिए बैठ गया। उसका मस्तिष्क किसी कल्पना की उधेड़बुन में लगा हुआ था, हाथ की अंगुलियां नदी की मिट्टी को कुरेद रही थी। अचानक कुरेदते-कुरेदते उसके हाथ में एक चमकीला पत्थर आ गया। उसने उसे अपनी अंटी में रख लिया और सोचा कि यह मेरे बच्चों के देखने और खेलने के काम आ जाएगा।
समय काफी हो चुका था। चारों ओर की हरीतिमा और ठंडी ठंडी हवा उसे सोने के लिए बाध्य कर रही थी। अत्यधिक भूख के कारण भी वह आकुल-व्याकुल बना हुआ था। मन ही मन उसने सोचा-क्या ही अच्छा हो कि मुझे खीर-पूरी का भोजन मिल जाए? केवल सोचने भर की देर थी कि अगले ही क्षण उसके सामने खीर से भरा कटोरा और पूरियों से भरा थाल सामने आ गया। वह आश्चर्य में डूब गया कि यह कोई सपना है अथवा यथार्थ है। वास्तविकता को नकारा भी कैसे जा सकता था? उसने जी भरकर उस मनोनुकूल भोजन को खाया और खाकर तृप्त हो गया। उसके बाद आलस्य ने अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया। सोने की इच्छा होने लगी। मन में चिन्तन किया कि यदि सोने के लिए बिस्तर लगा हुआ पलंग मिल जाए तो वह एक दो घंटा नींद ले ले। चिन्तन के साथ ही पलंग भी तैयार मिल गया। कुछ ही देर में सूर्य की तीक्ष्ण किरणें उसको सताने लगीं। उसे छाया की जरूरत हुई। उसने मन में संकल्प किया कि यदि किसी मकान का आश्रय मिल जाए तो सोने में सुहागा हो जाए। संकल्पित होते ही उसे वैसा मकान भी उपलब्ध हो गया।
उस दरिद्र ने जो-जो चाहा वे सभी इच्छाएं पूर्ण होती गईं। उसने इसे भगवान की कृपा का ही प्रसाद माना। वह मन ही मन प्रसन्न बना हुआ अपने सौभाग्य की सराहना कर रहा था। अब वह निश्चिन्तमना होकर सोने की तैयारी करने लगा। आंखों में नींद थी तो पलकों में ऊंघ। शनैः शनैः निद्रादेवी उसे अपने अधीन कर रही थी। सुख की नींद वही होती है जिसमें कोई व्यवधान न हो, जिसमें कोई भार या तनाव न हो।
दरिद्र की आंखें मुंदी ही थी कि एक कौवा मकान के छज्जे पर बैठ गया और कांव-कांव करने लगा। उसने कौवे को उड़ाने का बार-बार प्रयास किया, पर वह उड़ता ही नहीं था। दरिद्र ने सोचा-मेरी नींद को
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