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उद्बोधक कथाएं
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उस समय जितशत्रु राजा मथुरा नगरी का अधिपति था। उसकी एक पुत्री थी। उसका नाम था निर्वृत्ति। जब वह विवाह के योग्य हुई तब राजा ने कन्या से पूछा- तुम्हें कैसा पति पसंद है ? कन्या ने कहा- जो पुरुष शूरवीर और पराक्रमी होगा वही मेरा पति होगा। राजा ने कहा अच्छा है, मैं तुम्हारे होने वाले पति को राज्य भी दूंगा।
निर्वृत्ति ने सुन रखा था कि इन्द्रदत्त राजा के बाईस पुत्र हैं। उसने मन ही मन सोचा - मेरी शर्त के अनुसार उनमें से जो भी युवक मुझे पसन्द आएगा उससे मैं विवाह कर लूंगी। इसलिए वह कन्या सैन्यबल और वाहनबल के साथ इन्द्रपुर नगर में चली गई । इन्द्रदत्त राजा ने भी सोचा- मैं निश्चय ही अन्य राजाओं से भाग्यशाली हूं। यह कन्या स्वयं यहां चल कर आई है। यह सोचकर उसने सारे नगर को ऊंची पताकाओं से सजाया। वहां एक रंगमंडप तैयार किया गया। उसमें आठ आरे वाले आठ चक्र थे । उन पर एक-एक पुतली का निर्माण कराया गया। सारे शहर में घोषणा करा दी गई कि जो भी राजकुमार तैलपात्र में पड़ने वाले पुतली की आंख के प्रतिबिम्ब को देखकर उसकी आंख को बींधेगा वही राजकुमारी निर्वृत्ति से पाणिग्रहण कर सकेगा।
राजा इन्द्रदत्त अपने पुत्रों के साथ सन्नद्ध होकर रंगमंडप पहुंचकर निर्धारित स्थान पर बैठ चुके थे। मंत्री के दौहित्र सुरेन्द्रदत्त ने भी रंगमंडप में आकर अपने स्थान को ग्रहण कर लिया। राजकुमारी निर्वृत्ति भी वस्त्र-अलंकारों से अलंकृत होकर राजा के पार्श्व में बैठी हुई थी । अमात्य, सभासद्, नगर के गणमान्य हजारों दर्शक, कन्या के पिता राजा जितशत्रु तथा उसके मंत्री तथा अन्य पार्षद भी उस रंगमंडप को सुशोभित कर रहे थे। सबके मन में एक ही जिज्ञासा और उत्सुकता थी कि कौन भाग्यशाली इस प्रतियोगिता में विजित होकर इस कन्या का वरण करेगा? जब सभा पूर्णतः भर गई तब राजा इन्द्रदत्त ने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीमाली से कहा - पुत्र! तुम्हें इस कन्या का वरण और राज्य का ग्रहण करना है, इसलिए तुम इस पुतली का वेधन करो। पुत्र को धनुर्विद्या का अभ्यास नहीं था। वह धनुष्य को ग्रहण करने में भी असमर्थ था । फिर भी उसने जैसे-तैसे धनुष्य को हाथ में लिया। बाण कहीं भी जाए, ऐसा सोचकर उसने धनुष्य से बाण को छोड़ा। वह बाण चक्र में आकर टूट गया। जब दूसरे पुत्र की बारी आई तो उसने भी बाण छोड़ा। उस बाण से केवल एक ही चक्र का भेदन हुआ । इस प्रकार क्रमशः अन्य सभी पुत्रों
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