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उद्बोधक कथाएं
२४५ दे सकता हूं। मैं तुम्हें ऐसा बना सकता हूं कि तुम जीवनभर हाथी के हौदे पर घूमते रहो, जिन्दगीभर ऐश्वर्य और विलासिता को भोगते रहो। ____ कार्पटिक अपनी एक ही मांग पर अडिग रहा। वह और अधिक कुछ नहीं मांगना चाहता था। राजा ने उसके कथनानुसार 'तथास्तु' कहकर वही वरदान दे दिया। कार्पटिक सेवक ने प्रथम दिन का भोजन राजमहल में ग्रहण किया। वह भोजन अत्यन्त स्वादिष्ट, सरस, तृप्तिदायक और मनोज्ञ था। भोजन कर वह पूर्णतः सन्तुष्ट और तृप्त हो गया। उसके बाद वह बारी-बारी से नगर के दूसरे घरों में भोजन करने लगा। दूसरे घरों का भोजन उसे उतना रुचिकर, स्वादिष्ट और मनोज्ञ नहीं लगा जितना कि राजमहल का। प्रथम दिन के भोजन की तुलना में वे सभी भोजन फीके-फीके और स्वादहीन थे। अब वह उस दिन की प्रतीक्षा करने लगा कि कब वह राजा के यहां पुनः भोजन करे और कब उसे वैसा स्वादिष्ट, सुरुचिपूर्ण भोजन मिले। अवसर हाथ से निकल चुका था, फिर राज्य में अनेक कुलकोटियों का अन्त आना भी संभव नहीं था।
जिस प्रकार सारा जीवन बीत जाने पर भी पुनः राजप्रासाद का भोजन मिलना दुष्कर है वैसे ही मनुष्यजीवन को खोने पर उसका पुनः मिलना दुष्कर है। २. पाशक
पाटलिपुत्र नाम का नगर था। वहां नन्दराजा राज्य करता था। उसी नगर में एक ब्राह्मण भी रहता था। उसके घर एक बालक ने जन्म लिया। वह 'चाणक्य' नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह बड़ा हुआ।
एक बार मार्ग में जाते समय वह किसी वृद्धा के घर ठहरा हुआ था। वृद्धा ने उसका आतिथ्य-सत्कार करते हुए उसे गर्मागर्म खिचड़ी परोसी। चाणक्य ने जल्दबाजी में उसे खाने के लिए बीच में हाथ डाल दिया। हाथ जल गया। वृद्धा को उसकी मूर्खता पर हंसी आ गई। उस युवक को टोकते हुए वह वृद्धा बोली-युवक! लगता है कि तू भी चाणक्य जैसा मूर्ख है। अपना नाम सुनकर चाणक्य कुछ चौंका। फिर संभलते हुए बोलामां! वह कैसे? वृद्धा ने कहा-जैसे चाणक्य छोटे-छोटे गांवों को बिना जीते सीधा राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण करता है वैसे ही तू भी आस-पास की खिचड़ी को ठंडा किये बिना सीधा ही बीच में हाथ डालता है। हाथ नहीं जलेगा तो क्या होगा? चाणक्य को इस घटना से
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