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________________ २४४ सिन्दूरप्रकर ३. दुर्लभ मानवजीवन आचार्य धर्मसभा में प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन का विषय थामनुष्यजीवन की दुर्लभता। उन्होंने विषय का प्रतिपादन करते हुए उसे एक आगमिक गाथा के आधार पर प्रस्तुत किया। वह गाथा है 'चुल्लग पासग धन्ने जूए रयणे अ सुमिण चक्के य। चम्म जुगे परमाणू दस दिटुंता मण अलंभे।।' मनुष्य का जन्म मिलना दुर्लभ है। उसकी दुर्लभता को गाथा में उल्लिखित दस दृष्टान्तों के द्वारा समझा जा सकता है। वे दृष्टान्त क्रमशः इस प्रकार हैं१. चोल्लक-बारी बारी से भोजन कांपिल्य नामक नगर में ब्रह्मदत्त राजा राज्य करता था। एक कार्पटिक सेवक उसकी हमेशा सहायता किया करता था। उसने राजा बनने से पर्व भी ब्रह्मदत्त की अनेक बार रक्षा की थी, उसे कई बार विपत्तियों से बचाया था। इसलिए वह सदा उसका अभिन्न सहायक बना रहा। कुछ समय के बाद ब्रह्मदत्त राजा बन गया। सेवक सेवक के रूप में ही रहा। वह अत्यन्त गरीब था। गरीबी के कारण उसको किसी ने कहीं भी आश्रय नहीं दिया। अब उसका राजा से मिलना भी दुष्कर हो गया। वह बारह वर्षों तक अत्यन्त गरीबी का जीवन जीता रहा। एक दिन उसे ज्ञात हुआ कि राजा ब्रह्मदत्त अपने राज्याभिषेक का बारहवां वार्षिकोत्सव मना रहे हैं। वह येन केन प्रकारेण राजा से मिलने को उत्सुक हुआ। उपाय सोचकर वह ध्वजवाहकों के साथ मिल गया। वे ध्वजवाहक राजा के पास जा रहे थे। राजा ने कार्पटिक को देखते ही पहचान लिया और उसे अपना परम रक्षक मानकर कुछ मांगने के लिए कहा। कार्पटिक कुछ सोचकर बोला-राजन्! मैं प्रथम दिन राजमहल में भोजन ग्रहण करूं, फिर बारी-बारी से समस्त राज्य के एक-एक कुल में भोजन कर पुनः आपके राजमहल में भोजन को प्राप्त करूं, यही मेरी मांग है। आप मुझे वरदान देकर कृतार्थ करें। राजा को उसकी इस तुच्छ अभ्यर्थना और तुच्छ बुद्धि पर तरस आया। उसने कार्पटिक को पुनः सोचने के लिए कहा-कार्पटिक ! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। तुम बहुत कुछ मांग सकते हो। तुम चाहो तो मैं तुम्हें गांव दे सकता हूं, नगर दे सकता हूं, धन-मकान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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