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उद्बोधक कथाएं
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जो श्वास लेती हुई भी निष्प्राण है। अतः धर्म मेरा प्राणतत्व है, अस्तित्व है, उसे मैं कैसे छोड़ सकता हूँ?
कुमार अर्हन्नक मौन थे, फिर भी उसकी मौनभंगिमा में सत्य बोल रहा था। कुमार के साथी मुखर थे, फिर भी उनकी वाणी में असत्य का दिग्दर्शन हो रहा था । कुमार के मित्र अर्हन्नक के वाणीसंयम पर झुंझला रहे थे। कोई उसे दुराग्रही तो कोई उसे हठधर्मी बताकर उसे विचलित करने का प्रयत्न कर रहा था। दैत्य भी बार-बार उसे धर्म छोड़ने की बात कहता हुआ मौत की चेतावनी दे रहा था। कुमार अर्हनक शान्तमुद्रा में सभी चेष्टाओं और प्रभावों से मुक्त था। उस पर चिकने घड़े की भांति किसी के कहने का कोई असर नहीं था । उस स्थिति में दैत्य भी क्रोध से तमतमा उठा। उसने अर्हन्नक को ललकारते हुए कहा - अरे 'दुष्ट । नराधम ! लगता है तुझे जीवन प्रिय नहीं है। देखता हूं तू धर्म को कैसे नहीं छोड़ता ? यह सुनते ही सारे पोतवणिक् जीवन की भीख मांगते हुए दीनस्वरों में बोल उठे - देवानुप्रिय ! हम अर्हन्नक के पीछे क्यों मरें ? वह यदि मरना चाहता है तो उसे मरने दें। आप हमें क्यों मारते हैं ? दैत्य ने फुफकारते हुए कहा- तुम सब उसी के ही भाई हो। तुमको कैसे छोड़ सकता हूं? इतना कहते ही दैत्य ने उस विशाल जहाज को आकाश के अधर में उठाया और उसे कुम्हार के चाक की भांति घुमाने लगा। उसमें सवार अनेक यात्री भय के कारण मूर्च्छित हो गए तो कुछेक करुण विलाप से फूट-फूट कर रोने लगे। पर कुमार अर्हन्नक दैत्य के भय से अतीत हो चुका था । उसमें न तो जीने की इच्छा थी और न मौत से भय था। वह दोनों स्थितियों में समभावपूर्वक रहकर यथार्थता का अनुभव कर रहा था। अन्त में दैत्य उसकी दृढधर्मिता, धैर्य, निर्भीकता से पराजित हुआ। जहाज को पुनः समुद्र में स्थापित कर तथा अपने मूल रूप को प्रकट कर वह बोला—अर्हन्नक ! इन्द्र ने देवों की सभा में तुम्हारे लिए जो कुछ कहा था तुम उस कसौटी में खरे उतरे हो। यह सारा प्रपंच मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही रचा था। धन्य है तुम्हारी दृढ़धर्मिता, धन्य है तुम्हारा त्याग। तुम मेरी ओर से दो दिव्य कुण्डलयुगल को स्वीकार करों । अब मैं अपने स्थान पर जा रहा हूँ।
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