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________________ २४२ सिन्दूरप्रकर से बचने के लिए समुद्र के बीच ऐसा कोई टापू भी नहीं था, जहां लंगर डाला जा सके। एक ओर जलपोत तूफान के थपेड़ों से डोल रहा था तो दूसरी ओर जलपोत में सवार यात्रियों का अन्तःकरण भय से डोल रहा था। इसी बीच यात्री कुछ चिन्तन करें उससे पूर्व ही एक विकराल दैत्य, जिसके बड़े-बड़े दान्त, काली श्यामल-मुखाकृति, छाज जैसे कान, गले में लटकते हुए बड़े-बड़े विषधर और कन्धों पर चढे हुए सियार आदि थे, आ खड़ा हुआ। ऐसा रौद्र रूप सबका दिल दहलाने वाला था। अब सबको सामने मौत दिखाई दे रही थी। कुमार अर्हन्नक इस अकल्पित और अप्रत्याशित दृश्य को देखकर तत्काल सारी स्थिति को भांप गया। वह उसे देवजन्य उपसर्ग मानकर जहाज के एक कोने में निष्पकम्प और अविचलभाव से कायोत्सर्गमुद्रा में स्थित हो गया। अब उसके सामने अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण के सिवाय कोई रक्षक नहीं था। अन्य पोतयात्री भी अपनी जीवन-रक्षा के लिए विविध उपायों को काम में ले रहे थे। कोई अपने इष्टदेव के स्मरण में तल्लीन था तो कोई तीर्थाटन, दान-दक्षिणा का संकल्प कर उस उपसर्ग को टालना चाहता था। उस दैत्य ने भयंकर अट्टहास करते हुए पोतवणिकों से कहा-क्या तुम्हें जीना इष्ट है? यदि है तो तुम सभी अपना-अपना धर्म छोड़ दो, अन्यथा मृत्युवरण के लिए तैयार हो जाओ। मैं अभी जहाज को समुद्र में डुबोता हूं। मौत का नाम सुनते ही चारों ओर हाहाकार मच गया। जानबूझकर मौत के मुंह में जाना किसे इष्ट हो सकता था? सभी एकस्वर में बोल उठे-हे देवानुप्रिय! आप ऐसा न करें। हम सब आपकी साक्षी से अपने धर्म-कर्म को तिलांजलि देते हैं और प्रण करते हैं कि भविष्य में हमारा धर्म से कोई वास्ता नहीं रहेगा। नहीं, नहीं, तुम सभी सहमत कहां हो, अर्हन्नक क्या कहता है ? देव ने प्रतिप्रश्न करते हुए कहा। साथियों ने कुमार अर्हन्नक की ओर देखा। वह तो अभी भी शान्तमुद्रा में कायोत्सर्ग में प्रतिष्ठित था। कुमार का अन्तर्मानस बोल रहा था कि धर्म कोई वस्त्र नहीं है, जब चाहा पहन लिया, जब चाहा उतार दिया। वह तो हमेशा जीवन के साथ रहने वाला है। मौत तो अवश्यम्भावी है। वह आज नहीं तो कल आएगी। क्या मौत के भय से धर्म को छोड़ा जा सकता है? यदि जीवन में धर्म का अंकुश है तो धन का अर्जन भी सम्यक् होगा, कामनाएं भी नहीं सताएगी। मैं धर्म को छोड़कर उस लोहार की धौंकनी के समान नहीं बनना चाहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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