________________
उद्बोधक कथाएं
२४१
पुत्र ने पिता की सीख लेकर धीमे से कहा - पिताश्री ! पुत्र के हृदय से माता-पिता कब विस्मृत हो सकते हैं। आपका मंगल आशीर्वाद ही मेरे लिए सब कुछ है । इसी अन्तराल में मां, भाई-बहिन आदि परिवार के अन्य सदस्य भी वहां आ गए। जहाज में माल का लदान हो चुका था । अर्हन्तक के साथ जाने वाले यात्री भी अपनी तैयारी के साथ वहां पहुंच चुके थे। अब प्रस्थान में आधा घंटा ही शेष बचा था।
चम्पापुर समुद्रतट पर बसा हुआ था । अंग जनपद के अधिपति महाराज चन्द्रछाया इस नगर के अनुशास्ता थे । समुद्रतट पर स्थित होने के कारण वह नगर एक प्रसिद्ध बन्दरगाह भी था। उसके पड़ोसी देशों के साथ अच्छे व्यापारिक सम्बन्ध थे । प्रतिदिन अनेक जलपोत दूसरे देशों से माल लेकर वहां आते थे और पुनः यहां से माल भरकर सुदूर देशों के लिए रवाना हो जाते थे । इस प्रकार वह नगर माल के आयात-निर्यात का संगमस्थल बना हुआ था। प्रस्थान से पूर्व कुमार अर्हन्नक ने परिवार के सभी सदस्यों के चरण छुए और पुनः माता-पिता के चरणों में झुक गया। माता-पिता ने उसे अपनी छाती से लगा लिया। सभी ने गद्गद होते हुए अर्हन्नक को विदा किया। देखते-देखते अर्हन्नक का जहाज अपने गन्तव्य की ओर रवाना हुआ। वह समुद्री जहाज विशाल जलराशि को चीरता हुआ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा था। ऊपर आकाश तो नीचे जल। न कहीं कोई भूमि का छोर था और न कहीं कोई आकाश में उड़ने वाले पक्षी ही दिखाई दे रहे थे। सर्वत्र आकाश की नीलिमा और जल की ऊर्मियां ही आंखों को प्रीणित कर रही थीं। कहीं-कहीं जलचर पक्षी और मत्स्य- कच्छप जीव अवश्य दृष्टिगत हो रहे थे। जलपोत में बैठे यात्री अपनी-अपनी धुन में मस्त होकर प्रकृति का आनन्द लूट रहे थे।
सूर्यदेवता अपनी माया को समेटकर विश्रामभूमि जाने को उद्यत था। वह इस बहाने दुनिया को बता रहा था कि किसी का अस्तित्व एक समान नहीं होता । किन्तु जो दोनों स्थितियों में एकरूप होता है वही महान् होता है। सूर्य छिपा ही था कि प्रकृति में अचानक विकृति का सा आभास होने लगा। पूरा अन्धकार न होने पर भी दुर्दिन से दिन का प्रकाश लुप्त हो गया। सारा आकाश बादलों से भर गया। चारों ओर काली कजरारी घटाएं, बिजली की कौंध, भयंकर गर्जारव के साथ वर्षा ने भयंकर ताण्डव प्रारम्भ कर दिया। समुद्र में अचानक एक भयंकर तूफान उठा और जलपोत उसके थपेड़ों से डगमगाने लगा। उसकी चपेट
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org