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सिन्दूरप्रकर केवलज्ञान की प्राप्ति होते ही उन्होंने साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना की, चतुर्याम धर्म का प्रवर्तन किया। केवली अवस्था में वे सत्तर वर्ष तक धर्मदेशना देते रहे।
उन्होंने मुख्यतया बिहार, कुरु, कौशल, काशी, अवन्ती, विदर्भ, दशार्ण, कर्नाटक, काश्मीर आदि जनपद देशों में विहार किया। ईरान, साइबेरिया, मिश्र, अफगानिस्तान आदि सदर देशों में भी उनके धर्म की गहरी प्रभावना रही। उनके शासनकाल में आर्यदत्त प्रमुख आदि दस गणधर तथा अनेक प्रतिभाशाली और प्रभावक आचार्य हुए। उन्होंने जिनशासन की बहुत सेवा की। उनके प्रसिद्ध नाम हैं-शुभदत्त, आर्य हरिदत्त, आर्य समुद्रसूरि तथा आर्य केशीश्रमण आदि।
अन्त में भगवान ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए सम्मेदशिखर पर चले गए। वहां उन्होंने अनशनपूर्वक शरीर का परित्याग किया। श्रावण शुक्ला अष्टमी के दिन वे सब कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। भगवान का संपूर्ण आयुष्य सौ वर्षों का था। इस अवसर्पिणी काल में वे जैन परम्परा के तेईसवें तीर्थंकर हुए।
२. धर्म से बड़ा न कोई...... प्रभात की शुभ वेला। गगन में उदित होता हुआ दिनमणि अपनी रक्तिमा से मानो दशों दिशाओं में सिन्दूर भर रहा था। मांगलिक समय, मंगलमय यात्रा की तैयारियां। श्रेष्ठिपुत्र अर्हन्नक ने अपने पिताश्री के कमरे में प्रवेश किया, चरणों में प्रणत होता हआ बोला-पिताश्री ! सामुद्रिक-यात्रा का मुहूर्त निकट है। आप मुझे आशीर्वाद दें और मुझे अपने कर्तव्यबोध तथा शुभाशंसा से अनुगृहीत करें, जिससे मेरी यात्रा प्रशस्त और मंगलमय बन सके। पिता ने अपनी वत्सलता उंडेलते हुए कहा-वत्स! तू स्वयं ही प्रबुद्ध और साहसी है। तेरे लिए मात्र संकेत ही काफी है। फिर भी यात्रा लम्बी और जोखिमभरी है। विशेषतः उसमें सावधानी की आवश्यकता है। कोई विघ्न अथवा उपसर्ग आने पर अपने मनोबल को दृढ़ रखना, अपने धैर्य को बनाए रखना तथा देव, गुरु और धर्म की शरण को कभी मत भूलना। अन्त में पिताश्री ने हंसते हुए कहा-और कोई काम न हो तो अपने वयोवृद्ध मां-बाप को ही याद कर लेना।
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