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उद्बोधक कथाएं
२३९ और देह से विदेह की साधना में लग गए।
साधना का मार्ग कण्टकाकीर्ण होता है। साधना करने वालों को अपने पुरुषार्थ से उसे बुहारना होता है। उसमें भूख-प्यास आदि अनेक परीषहों को सहना होता है, विविध उपसर्गों का सामना करना होता है। तब कहीं वह मार्ग प्रशस्त होता है। साधना में संलग्न होकर भगवान पार्श्व गांव-गांव और नगर-नगर में जनपद विहार कर रहे थे। एक बार वे शिवपुर नगर के कुछ दूर तापस आश्रम में पहुंचे और वहीं एक वटवृक्ष के नीचे ध्यानमुद्रा में स्थित हो गए। उस समय कमठ तापस का जीव, जो मेघमाली देव बना था, भगवान को ध्यानस्थ खड़े देखकर कुपित हो उठा। उसका भगवान के प्रति पूर्वभव का वैर जाग्रत हो गया। वह भगवान को विविध उपसर्ग देने लगा। पहले तो उसने शेर, चीता, व्याघ्र, विषधर आदि विविध रूप बनाकर कष्ट दिए। उन कष्टों में प्रभु मेरु की भांति अडोल और निष्प्रकम्प रहे। देव को यह कब सह्य हो सकता था? वह अपनी विफलता से निराश होकर और अधिक कुपित हो गया। उसने मेघ की विकुर्वणा की और देखते-देखते मूसलाधार वर्षा बरसानी प्रारम्भ कर दी। भगवान पार्श्व चारों ओर पानी से घिर गए। पानी का स्तर बढ़ते-बढ़ते घुटनों, जंघा, कमर को पारकर नासाग्र तक पहुंच गया। फिर भी भगवान अपनी ध्यानमुद्रा से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हए। वे चेतना की उस गहराई तक पहुंचे हुए थे जहां शरीर का बोध समाप्त हो जाता है।
इधर नाग-नागिन का जीव, जो धरणेन्द्र-पद्मावती बने थे, का आसन प्रकम्पित हआ। उन्होंने अपने अवधिज्ञान से देखा कि कोई दुष्ट देव भगवान पार्श्व को उपसर्ग दे रहा है। वे दोनों तत्काल भगवान की सेवा के लिए वहां से आए। उन्होंने भगवान के पैरों के नीचे एक विशाल नाल वाला कमल बनाया और ऊपर सात फणों वाला सर्पछत्र बनाकर उपसर्ग शान्त किया। भगवान समताभाव में लीन थे। न तो उनका कमठ के प्रति रोष था और न धरणेन्द्र-पद्मावती पर तोष। अन्त में कमठासुर पराजित होकर वहां से चला गया।
भगवान ने अपने साधनाकाल में तयासी रातें अभिग्रह और ध्यान में बिताईं। चौरासीवें दिन आश्रमपद उद्यान में धातकी वृक्ष के नीचे ध्यान करते-करते शुभ अध्यवसाय और शुभ लेश्या में वे क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हुए। उनके चार घनघाती कर्म क्षीण हुए और वे केवली बन गए। For Private & Personal Use Only
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