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सिन्दूरकर
सेना थी तो दूसरी ओर इन्द्र द्वारा प्रदत्त गगनगामी रथ । दोनों से संवलित होकर राजकुमार ने वाराणसी से युद्धभूमि की ओर प्रस्थान किया। प्रस्थान करते ही कुमार पार्श्व ने अपनी ओर से एक दूत यवनराज के पास भेजा और कहलवाया कि वे अपने दुराग्रह को छोड़ दें और जानबूझकर इस पर्वत से न टकराएं।
दूत राजकुमार का संदेश लेकर राजा यवन के दरबार में पहुंचा। उसने राजा और सभासदों के बीच उस संदेश को सुनाया। संदेश सुनते ही सभी सदस्यों की आंखों में खून उतर आया। उनकी भुजाएं फड़कने लगीं। तभी वृद्ध मंत्री ने उनको शांत करते हुए कहा - क्रोध से कभी कोई समाधान नहीं होता। हम पहले अपनी शक्ति को पहचानें, फिर कोई निर्णय लें। जिनके साथ हम युद्ध करना चाहते हैं उनका सहयोग तो स्वयं इन्द्र और देव भी कर रहे हैं, फिर उनके सामने हमारी यह तुच्छ शक्ति कब तक टिक पाएगी ? क्या हम उन्हें विजित कर सकेंगे? मेरी दृष्टि से हमें युद्ध का विचार छोड़कर उनके साथ मित्रता कर लेनी चाहिए।
वृद्ध मंत्री की बात राजा तथा अन्य सभी सदस्यों के गले उतर गई । राजा यवन ने दोस्ती का हाथ बढ़ाकर कुमार पार्श्व को अपना मित्र बना लिया। वह उनकी तन-मन से सेवा साधने लगा।
इधर राजा प्रसेनजित ने पुनः अपनी बात दोहराते हुए पार्श्व से कहा- आपने हमें राज्य संकट से उबारा है, उसके लिए धन्यवाद । अब आप राजकुमारी से पाणिग्रहण कर उसकी प्रतिज्ञा को भी पूर्ण कर दें। कुमार पार्श्व ने हंसते हुए कहा - अभी तो मैं यहां युद्ध के संकटमोचन के लिए आया था, पाणिग्रहण के लिए नहीं । अब तो मैं अपने देश लौट रहा हूँ।
राजकुमार पार्श्व विवाह के बन्धन में नहीं बन्धना चाहते थे, क्योंकि उनके चरण विरक्ति की ओर बढ़ चुके थे। फिर भी वे पिता के आग्रह को नहीं टाल सके। नहीं चाहते हुए भी उन्होंने पिता के कहने पर राजकुमारी प्रभावती से पाणिग्रहण कर विवाह के उपचार को निभाया।
राजकुमार पार्श्व के भोगावली कर्म शेष थे। उनका परिपाक होने पर वे दीक्षा के लिए उद्यत हुए। लोकान्तिक देवों ने उनसे जनकल्याण की याचना की । वर्षीदान देकर उन्होंने पौष कृष्णा एकादशी के दिन सौ व्यक्तियों के साथ वाराणसी के आश्रमपद उद्यान में दीक्षा स्वीकार की । उस दिन उनके तेले की तपस्या थी। दीक्षा लेते ही वे आत्मा से परमात्मा
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