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________________ उद्बोधक कथाएं २३७ बालक कुछ बड़ा हुआ। अब महाराज अश्वसेन के सामने बालक के नामकरण का प्रश्न था। उसके लिए उन्होंने एक विराट् प्रीतिभोज का आयोजन किया। उसमें अनेक लोग सम्मिलित हुए। अनेक लोगों ने अनेक नामों का प्रस्ताव सामने रखा। उन पर चिन्तन-मनन भी चला। किन्तु किसी एक नाम पर सबकी सहमति नहीं बन पाई। अन्त में महाराज अश्वसेन ने अपनी ओर से एक नाम प्रस्तुत करते हुए कहा-एक बार मैं महारानी की गर्भावस्था के समय उनके साथ उपवन में गया था। उस दिन घोर अन्धेरी रात थी। रात को वहां एक काला नाग निकला। गर्भ के प्रभाव से महारानी ने उस अन्धेरी रात में भी उस काले नाग को पार्श्व में चलते हुए देखा। तत्काल रानी ने मुझे सावधान करते हुए उस काले नाग की सूचना दी। इसलिए बालक का नाम पार्श्वनाथ (पार्श्वनाग) रखा जाए तो कैसा रहे? सभी ने राजा के द्वारा प्रस्तावित नाम का अनुमोदन किया। तब से कुमार पार्श्व नाम से पुकारा जाने लगा। बाल्यावस्था को पार कर राजकुमार यौवन की दहलीज पर पांव रख रहे थे। उनके अंग-अंग में अपूर्व लावण्य और सौन्दर्य टपक रहा था। उनके रूप-लावण्य की चर्चा भी सुदूर देशों में फैल चुकी थी। कुशस्थलपुर के राजा प्रसेनजित की राजकुमारी प्रभावती ने उनके रूप-लावण्य की चर्चा सुनकर राजकुमार पाव से विवाह करने की मन ही मन एक दृढ प्रतिज्ञा की। उन्हीं दिनों कलिंग देश का युवा नरेश यवन भी प्रभावती को पाने के लिए आतुर था। उसने राजा प्रसेनजित से कहलवाया-या तो राजपुत्री का विवाह मेरे साथ कर दो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। महाराज प्रसेनजित धर्मसंकट में पड़ गए। वे राजकुमारी की इच्छा के विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा सकते थे। इस संकट से उबरने के लिए उसने राजा अश्वसेन की सहायता लेनी चाही। जब राजा अश्वसेन युद्ध में जाने की तैयारी करने लगे तब राजकुमार पार्श्व को इस बात की जानकारी मिली। वे पिताश्री के पास आए और अनुरोध भरे स्वरों में कहा-तातश्री। इतने छोटे-से कार्य के लिए आप युद्ध में जाएं, यह आपको शोभा नहीं देता। आप मुझे अनुमति दें। यह काम तो मैं भी कर सकता हूँ। पिताश्री पुत्र के साहस, शौर्य और निर्भीकता को देखकर गर्व से फूले नहीं समाए। उन्होंने पुत्र को सभी प्रकार से योग्य और समर्थ जानकर युद्ध में जाने की सहर्ष स्वीकृति दे दी। एक ओर राजकुमार के साथ चलने वाली सुसज्जित चतुरंगिणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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