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________________ २३६ सिन्दूरप्रकर जाना उचित समझा। वे तत्काल वहां गए और उन्होंने देखा कि तपस्वी के चारों ओर बड़े-बड़े लक्कड़ जल रहे हैं। उनसे निकलती हुई अग्नि की ज्वाला मानो आकाश से प्रतिस्पर्धा कर रही है। हजारों लोग खड़ेखड़े उस दृश्य को निहार रहे हैं। यह सब देखकर राजकुमार से रहा नहीं गया। उन्होंने तपस्वी को संबोधित करते हुए कहा-अरे तपस्वी! क्या तेरी यही तपस्या है? यह तो घोर हिंसा का काम है। क्या कभी हिंसा में धर्म होता है? इसमें तो नाग-नागिन का जोड़ा जल रहा है। तपस्वी ने कुमार पार्श्व के कथन का प्रतिवाद करना चाहा, किन्तु हाथकंगन को आरसी क्या? तत्काल पार्श्व ने उस विशाल काष्ठखंड को तपस्वी के सामने चिरवाया। उसमें से एक अधजला नागयुगल तड़फता हुआ बाहर आकर गिर पड़ा। वह अन्तिम सांसें गिन रहा था। कुमार ने तुरत-फुरत उस युगल को नमस्कार महामंत्र सुनाया और अरिहंत, सिद्धों की साक्षी से यावज्जीवन प्रत्याख्यान करा दिया। उसी समय उस युगल ने अपने प्राणों को छोड़ दिया। वे दोनों शुभ परिणामों में मरकर नागकुमार देवों के इन्द्र-इन्द्राणी-धरणेन्द्र पद्मावती बने। इस घटना से कमठ तपस्वी का प्रभाव कम हो गया। उसे चारों ओर निन्दा और अपमान की दृष्टि से देखा जाने लगा। अपने को तिरस्कृत हुआ जानकर उसने क्रुद्ध होकर आमरण अनशन कर लिया। अन्त में वह मरकर मेघमाली देव बना। बालक पार्श्व जब गर्भ में आए थे तब उनकी माता वामादेवी ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में चौदह शुभ स्वप्नों को देखा था। वे स्वप्न उनके भावी तीर्थंकर होने की सूचना दे रहे थे। स्वप्नपाठकों ने भी उन स्वप्नों का वही फलादेश बताया था। इस शुभ संकेत से सारे घर में मंगलमय, प्रसन्नमय और उल्लासमय वातावरण छा गया। गर्भस्थिति के पूरा होने पर पौष कृष्णा दसमी की मध्यरात्रि में बालक का जन्म हुआ। एक ओर देवताओं और देवेन्द्र ने बालक का जन्माभिषेक मनाकर अपनी प्रसन्नता को अभिव्यक्त किया तो दूसरी ओर महाराज अश्वसेन ने राज्यभर में मंगलदीपों और मंगलगीतों से उसका वर्धापन किया। स्वयं राजा ने याचकों को मुक्त हाथ से दान दिया, बन्दियों को कारागृह से मुक्त किया और जनता पर लगे कर-लगान को माफकर उन्हें लाभ पहुंचाया। इस प्रकार राज्यभर में किसी न किसी रूप में बालक का जन्मोत्सव मनाकर सभी ने उस खुशी में अपनी खुशी प्रकट की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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