SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १. पार्श्वप्रभुः पातु वः प्रातःकाल का समय। मन्द मन्द बहता हुआ वासन्ती पवन। चारों ओर फैली हुई वनराजि अतृप्त नयनों को तृप्त कर रही थी । वाराणसी नगर अपनी भव्यता, कला और संस्कृति के लिए दूसरे जनपदों में एक उदाहरण बना हुआ था। वहां के महाराज अश्वसेन एक धर्मनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा थे। महारानी वामादेवी अर्हत्धर्म में आस्थाशील और करुणाशील महिला थी । उनके पुत्र कुमार पार्श्व भावी तीर्थंकर होकर धर्मचक्र का प्रवर्तन करने वाले थे। राजप्रासाद की विशालता, सुन्दरता और कला की बेजोड़ प्रतिमा जन-जन के नयनों में बसी हुई थी । एक दिन राजकुमार अपने महल के वातायन से नगर की सुषमा का अवलोकन कर रहे थे। सहसा उनकी दृष्टि राजमार्ग से गुजरने वाले लोगों पर पड़ी। हजारों लोग एक ही दिशा में अहंपूर्विकया आगे बढ़ रहे थे । राजकुमार कुतूहल और जिज्ञासा से भर गए। उन्होंने सोचा- क्या आज हमारे नगर में कोई महोत्सव है ? अथवा कोई निर्ग्रन्थ श्रमण यहां पधारे हुए हैं? अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए उन्होंने अपने अंगरक्षकों से इसकी अवगति करनी चाही । पूछने पर ज्ञात हुआ कि नगर के बाहरी उद्यान में एक तपस्वी आया हुआ है। उसका नाम कमठ है। वह पंचाग्नि तप तपता है। उसके तपःप्रभाव से प्रभावित होकर लोगों की भीड़ उस तपस्वी के दर्शनार्थ वहां जा रही है। तत्काल राजकुमार ने वस्तुस्थिति को जानने के लिए अपना अवधिज्ञान लगाया। वे अपने ज्ञानबल से जान गए कि यह कोरा पाखंड है, लोगों को दिग्मूढ करने का रास्ता है, धर्म के नाम पर धोखा है। इस प्रकार के क्रियाकाण्ड से जनता का कल्याण होने वाला नहीं है। इसका अवश्य ही रहस्योद्घाटन होना चाहिए। जन-जन को इसकी सत्यता और वास्तविकता का पता लगना चाहिए। यह सोचकर स्वयं पार्श्व ने वहां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy