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सामान्योपदेश
२७.अवबोध
ग्रन्थकार सूरीश्वर सोमप्रभ ने अपने ग्रन्थ की इतिश्री सामान्योपदेश से की है। इससे पूर्व उन्होंने विविध विषयों से संबंधित पुष्पों का चयन कर पाठकों के सामने एक सुन्दर गुलदस्ता उपहृत किया है। यह गुलदस्ता मात्र विविध वर्ण वाले इक्कीस पुष्पों में ही गुम्फित हुआ है। सामान्योपदेश में उन्होंने सबके काम आने वाली जनभोग्य सामग्री को परोसा है और इक्कीस प्रकरणों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि विविध विषयों की विशद व्याख्या कर विशेष-रुचि वाले व्यक्तियों के लिए उन्हें उपभोग्य बनाया है।
सामान्योपदेश में श्लोकानुसार कुछेक विषय इस प्रकार प्रतिपादित हुए हैं-मुक्तिरूपी लक्ष्मी का वरण कैसे हो? इष्ट सुख की प्राप्ति के साधन क्या हैं? कुशलपुरुषों द्वारा सुप्राप्य न्यायमार्ग का अनुवर्तन किस प्रकार किया जाए ? महान् पुरुषों के भूषण क्या हैं ? मुक्तिरूपी नगरी में जाने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए वर्जनीय कार्य कौन-से हैं? तथा सिन्दूरप्रकर के श्रवण से लाभ और ग्रन्थकार का परिचय। __ग्रन्थप्रणेता ने मुक्तिरूपी लक्ष्मी का वरण करने के लिए तथा इष्ट सखों की प्राप्ति के लिए विविध उपायों की चर्चा की है। विशेषतः वीतराग-स्तवना, पूजा-अर्चना के लिए उन्होंने सन्ध्या के समय को सर्वोत्तम माना है। वैदिकों में सन्ध्या का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस तथ्य से लगता है कि सूरीश्वरजी ने वैदिक परम्परा से श्रमणपरम्परा को जोड़ने का भी सार्थक प्रयास किया है। इसलिए वे वीतराग-स्तवना के लिए प्रातः, मध्याह्न तथा सायं-तीनों संध्याओं को करणीय मानते हैं।
अन्य श्लोक में उन्होंने मुक्तिरूपी नगरी में जाने के लिए सबसे बाधक तत्त्व इन्द्रियविषयों को माना है। वे मुमुक्षु को सावधान करते हुए कहते हैं-ये विषयरूपी विषवृक्ष हैं। इनके नीचे कभी निवास मत करना, क्योंकि इनकी छाया भी मूढता को फैलाने वाली है। उससे मूढ होकर
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