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________________ अवबोध-२७ २२९ व्यक्ति एक कदम भी नहीं चल पाता। गमन के अभाव में मुक्ति की प्राप्ति कैसे होगी? ___ काव्यकार ने 'सामान्योपदेश' में उन भूषणों की भी चर्चा की है जो मनुष्य के आन्तरिक सौन्दर्य के प्रतीक हैं। उन्होंने प्रत्येक अवयव का अलगअलग भूषण बताते हुए कहा है-दान हाथ का भूषण है, गुरुचरणों में प्रणाम करना शिर का भूषण है, सत्यवाणी बोलना मुख का भूषण है, श्रुत का श्रवण करना कानों का भूषण है, निर्मलवृत्ति को धारण करना हृदय का भूषण है तथा विजय को प्राप्त कराने वाला पौरुष भुजाओं का भूषण हैं। जिनके पास ये भूषण हैं वे व्यक्ति ऐश्वर्य के बिना भी सुशोभित हैं। वे ही प्रकृति से महान हैं। ग्रन्थ का पठन-पाठन करना स्वाध्याय की सबसे बड़ी कुंजी है और कर्मनिर्जरण का एक महान हेतु है। आचार्य सोमप्रभ ने ग्रन्थ के श्रवण को भी अज्ञानरूपी पंक को दूर करने के लिए स्वीकार किया है। वे कहते हैं-जो व्यक्ति अल्प उपदेश वाले इस लघु ग्रन्थ का निरन्तर श्रवण करता है उसे अवश्य ही ज्ञान का प्रसाद मिल जाता है, अज्ञानरूपी पंक नष्ट हो जाता है। _अन्त में प्रशस्तिवाचक श्लोक में गुरुपरंपरा का उल्लेख इस प्रकार है-'आचार्य अजितदेव के पट्ट पर आचार्य विजयसिंह पट्टासीन हुए। उनके चरणकमलों की उपासना करने वाले उनके शिष्य सोमप्रभ हुए। उन्होंने प्रस्तुत ग्रंथ सूक्तिमुक्तावली की रचना की।' यह ग्रन्थ आदिवचन के आधार पर 'सिन्दूरप्रकर' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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