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________________ अवबोध-२६ २२५ तथा अभय होता है। जिसे सुख की आकांक्षा है उसे वैराग्य का आचरण करना ही होगा। जीवन में प्रत्येक मनुष्य को किसी न किसी प्रकार का भय सताता रहता है। किन्तु जो व्यक्ति वैराग्यवान् होता है वह सदा अभय होता है। इस प्रसंग में संस्कृतकवि भर्तृहरि ने लिखा है'भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं, मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम्। शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं, सर्व वस्त भयान्वितं भूवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।।' भोग में रोग का, कुल में क्षीणता का, धन में राजा का, मौन में दीनता का, बल में शत्रु का, रूप में जरा का, शास्त्र में वाद का, गुण में दर्जन का तथा शरीर में मृत्यु का भय बना रहता है। इस प्रकार इस संसार में मनुष्य के लिए सभी वस्तुएं भय पैदा करने वाली हैं, वैराग्य ही एक ऐसा है जो अभय है। प्रस्तुत ग्रंथ में आचार्य सोमप्रभ ने भी वैराग्य को भयमुक्ति का हेतु माना है। उन्होंने वैराग्य के गौरव को उजागर करते हुए कहा है-वैराग्य पापरूपी रजों को दूर करने के लिए जल, उन्मत्त इन्द्रियरूपी हाथियों को वश में करने के लिए अंकुश, मनरूपी वानर को नियन्त्रित करने के लिए शृंखला, कामरूपी ज्वर के उपशमन के लिए औषध तथा शिवमार्ग पर बढ़ने के लिए रथ के समान हैं। ____ अकेला वैराग्य समस्त कर्मों का अन्त उसी प्रकार कर देता है, जैसे प्रचण्ड वायु उमड़ती हुई मेघघटा का, दावाग्नि वृक्षसमूह का, सूर्य का प्रकाश अन्धकार का तथा वज्र पर्वतों का भेदन कर देता है। जिस दिन व्यक्ति के मन में वैराग्य का अंकुर प्रस्फुटित होता है उसी दिन से वह भोगों को काले नाग के फण के समान जानकर, राज्य को धूलि के तुल्य मानकर, इन्द्रियविषयों को विषाक्त अन्न की भांति समझकर, ऐश्वर्य-संपदा को राख के सदृश हृदयंगम कर तथा स्त्रियों के स्नेह को तृणवत् तुच्छ मानकर उन सबका यथायोग्य परिहार करने लग जाता है। जब जीवन में विरक्ति का अवतरण होता है तो चेतना भी निर्लेपता और अनासक्ति के भाव से भावित हो जाती है। जहां आसक्ति और लेप का लेश होता है वहां चेतना मलिन और कलुषित होती है। उसके साथ चिपकाव, लगाव और विषयसुखतृष्णा योजित हो जाती है। उत्तराध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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