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सिन्दूरप्रकर और द्वेष प्रतिकूल संवेदन है। रूपक की भाषा में इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि राग-द्वेष दो प्रकार की विद्युत् है-एक विद्युत् व्यक्ति को खींचती है तो दूसरी विद्युत् झटका देकर उसे फेंक देती है, किन्तु मारक दोनों ही हैं।
वैराग्य को स्वीकार करने का अर्थ है-राग से विराग की ओर कदम बढ़ाना, भोग से त्याग की चेतना को जगाना, बाहर से भीतर की ओर प्रस्थान करना तथा संसार से पराङ्मुख होकर अध्यात्ममार्ग के प्रति समर्पित होना।
महर्षि पतंजलि ने वैराग्य को परिभाषित करते हुए लिखा-'ज्ञानस्य पराकाष्ठा वैराग्यम्'-ज्ञान की पराकाष्ठा है-वैराग्य। जीवन में कब किसको वैराग्य हो जाए, कौन कब इस संसार से विरक्त हो जाए, कहा नहीं जा सकता। अज्ञात में वैराग्य के संस्कार छिपे रहते हैं। कोई निमित्त मिलता है तो वे उदबद्ध हो जाते हैं और जीवन की दिशा को मोड़ देते हैं। फिर भी सामान्यतया यही कहा जाता है कि वैराग्य का अवतरण अहंभाव के टूटने से होता है, भोग्यवस्तुओं के प्रति उदासीनता से होता है।
शिष्य ने गुरु से पूछा-गुरुदेव! मैं जानना चाहता हूं, वैराग्य क्या है? गुरु ने कहा'भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं,
स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः। संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता,
वैराग्यमस्ति किमतः परमर्थनीयम्।।' हृदय में जन्म-मरण का भय समा जाए, बान्धवजनों के प्रति होने वाला स्नेह दूर हो जाए, कामविकार मन से निकल जाएं तथा संसर्गदोष से रहित निर्जनवन में वास हो जाए और भगवद्भक्ति का अनुराग हो जाए तो इससे बढ़कर वैराग्य क्या हो सकता है, जिसकी याचना की जाए।
शिष्य समझ गया कि निवृत्ति ही वैराग्य है, वही सुख है, इसलिए सत्य कहा गया-'तत्सुखं यत्र निवृत्तिः'। सुख किसे नहीं चाहिए? हर व्यक्ति अपने सुख की चाबी अपने पास रखना चाहता है, अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में लेना चाहता है और स्वयं अपने भाग्य का स्वामी बनना चाहता है। किन्तु वैराग्य से बढ़कर दूसरा सद्भाग्य क्या हो सकता है?
जिसके कदम वैराग्य के पथ पर बढ़ जाते हैं वह सौभागी होता है, सुखी Jain Education International For Private & Personal Use Only
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