SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 233
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६. अवबोध यह संसार अनेक आकर्षणों का केन्द्रबिन्दु है। यहां इतने अधिक लुभावने आकर्षण हैं कि उनकी चकाचौंध में हर कोई चुंधिया जाता है। अनेकानेक सुख-सुविधाओं के साधन, पदार्थजगत् की कमनीयता और इन्द्रियविषयों के मनोज्ञ सुख व्यक्ति को बरबस अपनी ओर खींच लेते हैं। उस समय वैराग्य की बात करना और वैराग्य की बात सोचना एक अजूबा-सा लगता है। कुछ लोग मानते हैं कि जो कुछ है वह सब कुछ इस दुनिया में है । खाओ-पीओ, ऐश-आराम करो, यही जीवन का सार है। किसने स्वर्ग-नरक को देखा है ? किसने स्वर्गीय सुखों को भोगा है ? किसने नारकीय दुःखों का अनुभव किया है ? किसने किसको स्वर्ग-नरक के विषय में बताया है ? उनसे भयभीत होकर अथवा अपने मन की कल्पना से वैराग्य का जीवन जीना एक प्रकार से दोहरी भूल है। यह तो प्राप्त को ठुकराकर अप्राप्त को प्राप्त करने की कामना करने जैसा कार्य है। वैराग्य प्रकरण यह अनुरागात्मक अनुबंध मनुष्य को सदा अपने घेरे में बान्धे रखता है। उसे तोड़ पाना सहज-सरल नहीं है। यह भी एक सचाई है कि अनुकूलता की स्थिति से अपने आपको विलग करना कठिन होता है। राग का बन्धन प्रियता का संवेदन है, अनुकूलता का बन्धन है। यही कारण है कि एक भंवरा काष्ठ को छेदने में समर्थ होता है, किन्तु अपने रागात्मक अनुबन्ध के कारण वह कमलकोष को छेद नहीं सकता। यही स्थिति मनुष्य की बनी हुई है। वह रागात्मक संवेदन के कारण भोग-विलास में रचापचा हुआ है। पदार्थजगत् की लालसा उसे प्रतिपल सता रही है और सुखसुविधाओं को पाने की चिन्ता हमेशा उसके सिर पर सवार है । दूसरी ओर द्वेष के बन्धन से भी आदमी मुक्त नहीं है। राग की दृष्टि से देखा जाए तो द्वेष प्रतिकूलता का बन्धन है, अप्रियता का संवेदन है । प्रतिकूलता को, अप्रिय संवेदन को फिर भी छोड़ा जा सकता है, किन्तु अनुकूलता को, राग को सहसा नहीं छोड़ा जा सकता । अनुकूलता में लगाव होता है, प्रतिकूलता में दुराव होता है। राग अनुकूल संवेदन है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy