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सिन्दूरप्रकर मोही भावना - यह भावना सम्मोहन करने वाली तथा ममत्व पैदा करने वाली है। यह मेरा है, इस पर मेरा स्वामित्व है आदि इस भावना की निष्पत्ति है।
यद्यपि साधक का लक्ष्य संक्लिष्ट भावनाओं से हटकर असंक्लिष्ट भावनाओं की ओर, असमाधि से समाधि की ओर तथा ज्ञान से आचार की ओर प्रस्थान करना है, फिर भी नीतिकार कहते हैं
'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी । यादृशास्तन्तवः कामं तादृशो जायते पटः ।।'
जिसकी जैसी भावना होती है वैसी ही सिद्धि होती है। जैसे तन्तु होते हैं वैसा ही कपड़ा बनता है ।
भावना व्यक्तित्व निर्माण का घटक है। यह व्यक्तिविशेष पर निर्भर करता है कि वह अपने जीवन में भावना को कितना मूल्य देता है ? व्यक्ति को उसका फल भी भावना के अनुरूप ही मिलता है । संस्कृतकवि ने ठीक ही कहा है
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कृषिर्मेघानुसारतः । लाभो द्रव्यानुसारेण, पुण्यं भावानुसारतः ।।'
'दुग्धं देयानुसारेण,
गाय-भैंस का दूध उनकी खुराक के अनुसार होता है, खेती वर्षा के अनुसार होती है, लाभ माल के अनुसार मिलता है और पुण्य का लाभ भावना के अनुसार प्राप्त होता है। इसलिए निष्कर्ष के रूप में यही कहा जा सकता है - 'अन्ते मतिः सा गतिः' - मरते समय प्राणी की जो भावना होती है, उसकी गति भी वैसी ही हो जाती है।
आचार्य सोमप्रभ ने भी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता को हस्तगत करने के लिए शुभ भावना का समर्थन किया है। वह भावना ही भवसागर को तैरने के लिए महानौका, महाकषायरूपी पर्वतों के भेदन के लिए वज्र, मोक्षपथ तक जाने के लिए वेसरी तथा उपशमसुखों के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकती है।
फलश्रुति के रूप में प्रस्तुत प्रकरण का सारतत्व है
· भावना के द्वारा चेतना का रूपान्तरण ।
• भावना के द्वारा व्यक्तित्व विकास ।
भावना का दूसरों तक संप्रेषण ।
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• भावना के द्वारा चिकित्सा |
• भावना के द्वारा ग्रन्थियों के स्राव में परिवर्तन ।
भावना के द्वारा गुणों का संक्रमण ।
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