SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवबोध-२५ . २२१ अनुसार भावनाओं के दो प्रकार ये हैं- 'दुविहाओ भावणाओ संकिलिट्ठा य, असंकिलिट्ठा य-संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट। संक्लिष्ट भावना अर्थात् अशुभ भावना, असंक्लिष्ट भावना अर्थात् शुभ भावना। असंक्लिष्ट (शुभ) भावना सब दुःखों से मुक्त करने वाली, आनन्ददायिनी तथा प्राणिमात्र के लिए कल्याणकारक होती है। साधक प्रशस्त भावनाओं से अपने चित्त को भावित कर भावितात्मा हो सकता है। असंक्लिष्ट (प्रशस्त-शुभ) भावना के पांच प्रकार हैं ज्ञान भावना-ज्ञान का अभ्यास और सूत्र-अर्थ की विशुद्धि आदि रखना। दर्शन भावना-स्वयं को शंका आदि दोषों से निवारित कर प्रशम, स्थैर्य आदि गुणों से भावित करना। चारित्र भावना-नए कर्मों का अग्रहण, पुराने बंधे हुए कर्मों का निर्जरण और शुभकर्मों के ग्रहण से अपने आप को भावित करना। तप भावना-तप में अपने आपको लगाना तथा तप का अनुमोदन आदि करना। . वैराग्य भावना-जगत् के स्वभाव को जानना, अनासक्त, अभय और आशंसा से विप्रमुक्त होना। संक्लिष्ट भावना (अशुभ भावना) अप्रशस्त होती है, मन में संताप और तनाव को उत्पन्न करती है। वह साधक के लिए सर्वथा वर्जनीय है। उस संक्लिष्ट-अशुभ भावना के भी पांच प्रकार हैं कान्दी भावना-कामचेष्टा में प्रवृत्त होना। हंसी-मजाक तथा विकथा करना आदि। कामसंबन्धी सभी आचरण इसी भावना के अन्तर्गत हैं। आभियोगिकी भावना-मंत्र आदि का प्रयोग करना, वशीकरण अथवा हुकूमत करना आदि। इसमें विविध प्रयोगों से अपना अधिकार जमाने की वृत्ति होती है। किल्विषिकी भावना-यह परस्पर क्लेश पैदा करने वाली भावना है। इस भावना के अन्तर्गत निन्दा, तिरस्कार, ज्ञान का अपलाप आदि सभी आ जाते हैं। आसुरी भावना-सदा विग्रह करना, क्षमायाचना के उपरान्त भी प्रसन्न न होना, निमित्तशास्त्र का प्रयोग करना आदि इसके लक्षण हैं। यह क्रूरवृत्ति की भावना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy