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________________ अवबोध-२५ २१९ भावना के द्वारा भी मन की शक्ति को असीम शक्तिसंपन्न बनाया जा सकता है। ___ महर्षि पतंजलि ने ध्यान के तीन अंगों का प्रतिपादन किया-धारणा, ध्यान और समाधि। जैन योग में धारणा भावना का ही प्रतिरूप है। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। जब मन विषय के साथ जुड़ता है तब वह ध्येय बन जाता है। जब धारणा पुष्ट होती है तब वह ध्यान बन जाता है और जब ध्यान पुष्ट होता है तब वह समाधि बन जाता है। इस प्रकार एक ही ध्यान और एक ही विषय तीन प्रकार के आलम्बन से तीन रूपों में बंट जाता है। भावना का एक अर्थ है-सविषय ध्यान। विषय के प्रति अथवा ध्येय के प्रति तन्मय-एकाग्र हो जाना ही भावना की फलश्रुति है, इसलिए जप, भावना और सविषय ध्यान-तीनों में कोई अन्तर नहीं है। नामभेद होने पर भी तीनों की फलश्रुति एकाग्रता और तन्मयता की ओर ले जाने वाली है। अनेक आचार्यों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से भावना के विषय को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है। उनका अभिमत इस प्रकार हैउत्तराध्ययनसूत्र के बृहवृत्तिकार शान्त्याचार्य ने लिखा है- 'भाव्यतेआत्मसान्नीयतेऽनयाऽऽत्मेति भावना'-जो आत्मा को भावित करती है, आत्मसात् करती है उसे भावना कहते हैं। आवश्यकवृत्ति के वृत्तिकार हरिभद्रसूरी का अभिमत है-'भाव्यत इति भावना ध्यानाभ्यासक्रियेत्यर्थः' - ध्यान के योग्य चेतना का निर्माण करने वाली ध्यान के अभ्यास की क्रिया का नाम भावना है। ‘मनोनुशासनम्' ग्रन्थ के प्रणेता आचार्यश्री तुलसी कहते हैं-'चेतो विशुद्धये मोक्षक्षयाय स्थैर्यापादनाय विशिष्टं संस्कारापादनं भावना' चित्तशुद्धि, मोक्षक्षय तथा अहिंसा-सत्य आदि की वृत्ति को टिकाने के लिए आत्मा में जो विशिष्ट संस्कार जागृत किये जाते हैं वह भावना है। ___भावना शारीरिक विद्युत् तथा रासायनिक द्रव्यों के परिवर्तन का हेतु है। भावना गुण-संक्रमण का सिद्धान्त है। जिन गुणों से आत्मा को भावित किया जाता है अथवा जिसको जो कुछ बनना है उन गुणों से अपने आपको भावित करना आत्मा में उन गुणों की परिणति करना है। योगवशिष्ठ में उचित ही कहा गया 'अमृतत्वं विषं याति सदैवामृतवेदनात् । शत्रुर्मित्रत्वमायाति मित्रसंवित्तिवेदनात् ।।' विष का अमृतरूप में सदैव चिन्तन करने से वह अमृत बन जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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