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________________ सिन्दूरप्रकर २१८ पहुंचा देती है और उनकी निकृष्टता अर्थात् अपवित्रता आधे क्षण में सातवीं नरक का बन्धन करा देती है । प्रस्तुत काव्य के काव्यकार आचार्य सोमप्रभ ने भी प्रस्तुत 'भावना प्रकरण' में भावना के बिना सभी कर्मकाण्डों को तुषवपन की भांति निष्फल माना है। वे कहते हैं- शुभ भावना के बिना अर्हतों की अर्चा, दान, तप, स्वाध्याय आदि अनुष्ठान वैसे ही व्यर्थ हैं जैसे रागरहित पुरुष के प्रति तरुणियों का कटाक्ष, कृपण स्वामी की सेवा का श्रम, पत्थर पर कमलों का आरोपण तथा बंजर भूमि पर बरसने वाली वर्षा । जैन आगमों में भावना को एक नौका के रूप में प्ररूपित किया गया है | जिसकी आत्मा भावनायोग से विशुद्ध होती है वह भावना की नौका में आरूढ होकर जीवन की महानदी को पार कर इस छोर से उस छोर तक पहुंच जाता है, समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है'भावनाजोगसुद्धप्पा, जले णावा व आहिया । णावा व तीरसंपण्णा, सव्वदुक्खा विउट्टति । । ' आगमों में अनेक स्थलों पर 'भावितात्मा' शब्द का प्रयोग देखा जा सकता है। उसका तात्पर्य ही है कि भावितात्मा बने बिना जीवन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। आज के वैज्ञानिक भावना के प्रयोगों को चिकित्सा विज्ञान और मानव-स्वभाव तथा व्यवहार-परिवर्तन के कार्यों में काम ले रहे हैं। यद्यपि वैज्ञानिक शब्दावली में 'भावना' शब्द प्रयुक्त नहीं है। वे भावना के स्थान पर Brain washing ( मस्तिष्कीय धुलाई), Suggestion अथवा Auto Suggestion (सुझाव अथवा स्वतः सुझाव ) का प्रयोग कर रहे हैं। वे सभी प्रयोग भावना के ही प्रयोग हैं। भावना की जो निष्पत्ति है वही निष्पत्ति इन प्रयोगों से सम्भव है। भावना का अर्थ है - पुनः पुनः अभ्यास करना, विविध संकल्पों से मन को बार-बार भावित - वासित करना। जिस प्रकार रस्सी के बार-बार आवागमन से शिलापट्ट पर चिह्न पड़ जाता है वैसे ही बार-बार के अभ्यास से अवचेतन मन भी उस भावना से संस्कारित या भावित हो जाता है। आयुर्वेद में पुट और होम्योपैथी में पोटेन्सी का बहुत महत्त्व है। दवाई की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए आयुर्वेद में दवाई को पुट से और होम्योपैथी में पोटेन्सी देकर उसे भावित किया जाता है। उससे दवाई की क्रियाशीलता, प्रभावक क्षमता दुगुनी चौगुनी हो जाती है। इसी प्रकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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