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अवबोध-२५
२१७ समीपस्थ आने वाले प्राणी की दूषित भावनाओं का मल धुल जाता है और वहां वैरभाव की इतिश्री हो जाती है। अतः जैन परम्परा में भावना का सर्वाधिक मूल्य रहा है। भगवान महावीर ने मोक्ष के चार हेतुओं का प्रतिपादन किया- दान, शील, तप और भावना। उनमें भी मुख्यतया भावना की प्रमुखता है। यदि दान, शील और तप भी भावना से भावितवासित नहीं होते हैं तो वहां द्रव्यक्रिया के अतिरिक्त अधिक कुछ नहीं है। भावक्रिया की सिद्धि के लिए तीनों में भी भावना की प्रमुखता है।
चाणक्यनीति में भावना की प्रमुखता को स्वीकार करते हुए कहा गया है
'न देवो विद्यते काष्ठे, न पाषाणे न मृन्मये।
भावेष विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम् ।।' भगवान न तो काष्ठ में है; न पत्थर में है और न मिट्टी में है। भगवान का निवास तो पवित्र भावना में है, इसलिए भावना ही भगवत्-प्राप्ति का मुख्य कारण है।
आचारांगसूत्र में भावना की महत्ता को उजागर करते हुए कहा गया- 'जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा'-जो आश्रव कर्मप्रवेश के हेतु हैं वे भावना की पवित्रता से परिस्रव हो जाते हैं, कर्म के निरोधक हो जाते हैं और जो परिस्रव हैं वे भावना की अपवित्रता से आश्रव-कर्मग्रहण के हेतु हो जाते हैं। इसी प्रकार ओघनियुक्ति में कहा गया- 'जे जत्तिया य हेउ भवस्स ते चेव तत्तिया मुक्खे।' चलना-फिरना, बोलना, देखना आदि जितनी भी मनुष्य की आवश्यक प्रवृत्तियां हैं वे सब रागद्वेष के जुड़ने पर संसार-भ्रमण की हेतु बन जाती हैं। वे ही जब रागद्वेष से वियुक्त होती हैं तब वे मुक्ति की हेतु बन जाती हैं।
यह सत्य है कि आत्ममुक्ति अथवा कर्मनिर्जरा के लिए भावना के मूल्य को गौण नहीं किया जा सकता। कौन व्यक्ति कितनी साधना करता है, उसके साथ भावना का तादात्म्य जुड़ा हुआ है। यदि साधना के साथ भावना की पवित्रता जुड़ी हुई है तो वह साधना साधक को परम पद तक पहुंचा देती है। शास्त्रों में कहा गया है
'मनोयोगो बलीयांश्च भाषितो भगवन्मते ।
यः सप्तमी क्षणार्धेन नयेद् वा मोक्षमेव च ।।' भगवान ने मनोयोग को बलवान् कहा है। मनोयोग अर्थात् भावनाओं की उत्कृष्ट विशुद्धि जीव को आधे क्षण-अल्प समय में मोक्ष
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