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सिन्दूरप्रकर पवित्रता रखना मानसिक तप है। आगे गीता में कहा गया कि यदि तीनों प्रकार का तप बिना किसी आकांक्षा के परम श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया जाए तो वह तप सात्विक, यदि वह सत्कार, मान एवं पूजा-प्राप्ति के लिए दम्भपूर्वक किया जाए तो वह तप राजसिक तथा जो शरीर को पीड़ित करने के लिए अथवा दूसरों का नाश करने के लिए किया जाए, वह तप तामसिक कहलाता है।
तप की आराधना करना केवल शरीर को सताना नहीं है, किन्तु तपस्याजन्य कष्टों को भी समभावपूर्वक सहना अभीष्ट है। कुछ लोग मानते हैं कि जैनों की तपस्या केवल शरीर को ही सताने वाली और शरीर को सुखाने वाली है। उनका यह चिन्तन सम्यक नहीं है। वास्तव में जो तपस्या विवेकपूर्वक अथवा ज्ञानपूर्वक की जाती है अथवा जिस तपस्या के पीछे किसी महान् उद्देश्य की प्राप्ति जुड़ी होती है वही तपस्या सार्थक और महान् निर्जरा का हेतु बनती है। आगमों में अपना बल, पराक्रम, श्रद्धा, आरोग्य को देखकर तथा क्षेत्र-काल को जानकर तपस्या करने का विधान किया गया है। आचार्य यशोविजयजी ने भी स्वकृत तपोष्टकम् में कहा है___'तदेव हि तपः कार्य, निं यत्र नो भवेत् ।
येन योगा न हीयन्ते क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि च।।' तप वैसा ही करना चाहिए, जिसमें दुर्ध्यान न हो, योगों में हानि न हो और इन्द्रियां क्षीण न हों।
जो तप अज्ञानपूर्वक, अविवेकपूर्व तथा अपनी क्षमता के प्रतिकूल स्थिति में किया जाता है, वह अनेक समस्याओं को उत्पन्न करने वाला तथा असन्तुलन की स्थिति का निर्माता होता है। ऐसा तप कभी-कभी व्यक्ति को विक्षिप्त भी बना देता है।
वह तप भी फलदायी नहीं होता जिसमें बाह्याडम्बरों की भरमार होती है। ऐसा तप दूसरों के लिए दिखावा होता है तो अपने लिए छलावा होता है। वही तप वास्तव में तप है जिसके साथ ध्यान, आत्मचिन्तन, स्वाध्याय, सामायिक आदि प्रवृत्तियों का संयोग होता है। केवल भूखा मरना अथवा शरीर को सुखाना ही धर्म नहीं है। धर्म का रहस्य है-कर्मनिर्जरण। वह तपस्या के द्वारा ही सुलभ है। निष्कर्ष के रूप में प्रस्तुत प्रकरण का प्रतिपाद्य है
• तपस्या है-सत्य के लिए तपना, सत्य के लिए खपना तथा सत्य
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