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अवबोध-२४
हुए कहा गया- 'नो इहलोगट्ट्याए तवमहिट्ठेज्जा, नो परलोगट्ट्याए तवमहिट्ठेज्जा, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ट्याए तवमहिठ्ठेज्जा, नन्नत्थ निज्जरट्ट्याए तवमहिट्ठेज्जा । '
इस लोक की कामना को लेकर, जैसे- धन, प्रसिद्धि या सम्मान आदि के लिए, परलोक की कामना से देव, इन्द्र, अहमिद्र या चक्रवर्ती बनने के लिए तथा कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। तप का उद्देश्य केवल निर्जरा के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं होना चाहिए |
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इसी प्रकार सूत्रकृतांगसूत्र में भी निर्जरा के उद्देश्य को पुष्ट करते हुए कहा गया- ' णो पूयणं तवसा आवहेज्जा' - तपस्या से पूजा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए । 'तेसिं पि तवोऽसुद्धो' - जो कीर्ति आदि की कामना से तप करते हैं उनका तप अशुद्ध होता है।
शास्त्रों में कारण और कार्यभेद के अनुसार तप के बारह भेद बतलाए गए हैं। उनमें अनशन, ऊनोदरी आदि प्रथम छह तप बाह्य हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय आदि अन्तिम छह तप आभ्यन्तर हैं। वास्तव में कर्मनिर्जरण के कारण निर्जरा का एक ही प्रकार है। वह भी तप के बारह भेद होने के कारण बारह प्रकार का हो जाता है। बाह्य और आभ्यन्तरदोनों प्रकार के तप आत्मशुद्धि का हेतु बनते हैं।
गीता में भी तीन प्रकार के तपों की चर्चा है - शारीरिक तप, वाचिक तप और मानसिक तप । गीता में कहा गया है
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'देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते । । अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते । । मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः ।
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भावसंशुद्धिरित्येतत् तपो मानसमुच्यते । । '
• देवता, ब्राह्मण, गुरु एवं ज्ञानीजनों का पूजन करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा का पालन करना शारीरिक तप है।
दूसरों को उद्विग्न न करना, सत्य, प्रिय, हितकारी वचन कहना तथा सत्शास्त्रों का अध्ययन करना वाचिक तप है।
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मन की प्रसन्नता, शान्तभाव, मौन, आत्मसंयम और भावों की
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