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________________ २१२ सिन्दूरप्रकर है, दारुण इन्द्रियसमूहरूपी सर्प को वश में करने के लिए मन्त्राक्षर तुल्य है, विघ्नरूपी अन्धकारसमूह को नष्ट करने के लिए दिन की तरह है, लब्धिरूपी संपत्लता को उत्पन्न करने के लिए मूल के समान है, ऐसा तप निष्काम भावना से आचरणीय है। पुनः उन्होंने तपश्चर्या की श्लाघा करते हुए कहा है-जो तप कल्याणकारक और इन्द्रियसमूह का दमन करने वाला है तथा जिससे महान् ऋद्धियां-सिद्धियां प्राप्त होती हैं, वैसा तप किसके लिए श्लाघ्य नहीं होगा? पुनः आचार्य ने कर्मक्षय के साथ तप का अविनाभावी संबंध प्रकट करते हुए कहा है-जिस प्रकार दावानल के सिवाय अन्य कोई वन नहीं जला सकता, मेघ के बिना कोई दावानल नहीं बुझा सकता, पवन को छोड़कर अन्य कोई मेघ को छिन्न-भिन्न नहीं कर सकता वैसे ही कर्मसमूह का क्षय करने के लिए तप के सिवाय कोई समर्थ नहीं हो सकता। __ प्रकरण के अन्त में उन्होंने तप के स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है-यह तप एक वृक्ष के समान है। इसका मूल सन्तोष है। प्रशम इसका परिकर-स्कन्धबन्ध का विस्तार है। पांचों इन्द्रियों का निग्रहण इसकी शाखाएं हैं। देदीप्यमान अभय इसके पत्र हैं। शीलसंपदा इसके नवपल्लव हैं। यह श्रद्धारूपी जलपूर से सिक्त होने पर विपुल कुल, बल, ऐश्वर्य और सौन्दर्य का विस्तार करने वाला है। स्वर्ग आदि की प्राप्ति होना इसके पुष्ष हैं तथा यह मोक्षपद का फल देने वाला है। तपस्या करने का उद्देश्य है-आत्मशुद्धि या आत्मोदय। जो तपस्या अन्यान्य कामनाओं से की जाती है वह वस्तुतः आत्मोपलब्धि का हेतु नहीं बनती। कामना के आधार पर तप के भी दो प्रकार हो सकते हैंआत्मसिद्धि के लिए की जाने वाली तपस्या, जिसे जैन शब्दावली में सकाम निर्जरा कहते हैं। भौतिक सिद्धि के लिए की जाने वाली तपस्या, जिसे अकाम निर्जरा कहते हैं। बुद्धिमान् व्यक्ति कभी तूड़ी, तृण आदि के लिए खेती नहीं करता। वह धान्य के लिए ही खेती करता है। इसलिए तपस्या भी आत्मशुद्धि के लिए ही होनी चाहिए। हो सकता है उस तप के साथ अन्यान्य भौतिक लब्धियां भी प्राप्त हो जाएं, पर एक साधक तपस्वी के लिए वे सर्वथा अनभिलषणीय होती हैं। वे तो मात्र दिग्भ्रमित करने के लिए साधनामार्ग में पड़ने वाले पड़ाव हैं, इसलिए दसवैकालिकसूत्र में मानवमात्र के लिए तपस्या के उद्देश्य को स्पष्ट करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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