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अवबोध-२४
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है कि शुद्ध आत्मा का दर्शन कैसे किया जाए, उसे किस प्रकार उपलब्ध किया जाए? ___ यह भी एक सचाई है कि व्यक्ति जब तक प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह की चेतना में लिप्त रहेगा तब तक वह कर्मों के संग्रहण से मुक्त नहीं हो सकता। उसके लिए कर्मरजों से आत्मा को रंजित न होने देना आत्मशुद्धि का सर्वोत्तम उपाय है। वह है-तपस्या। वस्तुतः बिना तपे कोई शुभ फल मिलता ही नहीं। इसी प्रसंग में गांधीजी ने कहा था-'तपस्या जीवन की सबसे बड़ी कला है। तप वही होता है, जो पांचों इन्द्रियों और मन को वश में करना सिखाता है।' दसवैकालिकसूत्र में भी मुनि के लिए निर्देश किया गया- 'परक्कमेज्जा तवसंजमम्मि'-मुनि को तप और संयम में पराक्रम करना चाहिए, क्योंकि 'तवेण परिसज्झइ'-तप से आत्मा पवित्र होती है, 'तवेणं वोदाणं जणयई'तप से व्यवदान अर्थात् पूर्वसंचित कर्म क्षीण होते हैं, 'भवकोडीसंचियं कम्म तवसा निज्जरिज्जई'-तप से करोड़ों भवों के संचित कर्म जीर्ण होकर निर्जरित होते हैं। मनुस्मृति में भी तप की महिमा को बताते हुए कहा गया
'यद् दुस्तरं दुरापं, यद् दुर्ग यच्च दुकरम् ।
सर्वं तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमः।।' जो दुस्तर है, जिसको प्राप्त करना कठिन है, जो दुर्गम और दुष्कर है वह सब तपस्या के द्वारा साध्य है। अतः तप का अतिक्रम करना मुश्किल
पातंजल योगदर्शन में तपःसिद्धि के विषय में मिलता है'कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः' -तपस्या से अशुद्धि का क्षय होता है। अशुद्धि का क्षय होने पर शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है। इसलिए यह कहना सार्थक होगा-'तपसा क्षीयन्ते कर्माणि'-तपस्या कर्मों को क्षीण करती है। वह ऐसी अग्नि है जो आत्मा को तपाकर सुवर्ण की भांति निखार देती है। वह ऐसी चुम्बकीय छड़ी है जो आत्मा से कर्मरजों को खींच कर विलग कर देती है। वह ऐसी अद्भुत शक्ति है जो कर्मशरीर को धुन कर कर्ममल को दूर कर देती है।
प्रस्तुत प्रकरण में तपगौरव को दर्शाते हुए आचार्य सोमप्रभ कहते हैं--तप पूर्वभव में अर्जित कर्मरूपी पर्वतों को तोड़ने के लिए वज्र की
भांति है, कामरूपी दावानल की ज्वाला के शमन के लिए जल के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only
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