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________________ तप प्रकरण २४. अवबोध जैन साधना-पद्धति में साधना की दो महत्त्वपूर्ण विधियां हैं- संवर और निर्जरा । कृत कर्मों की विशोधि करना, उनका निर्जरण करना अर्थात् कर्मशरीर को प्रकम्पित कर उससे कर्मपरमाणुओं को पृथक् करना निर्जरा की प्रक्रिया है । इसे आज की भाषा में रेचन की प्रक्रिया भी कहा जा सकता है। नए सिरे से आत्मा के साथ कर्मपुद्गलों का बन्धन अथवा चिपकाव न हो, उसके लिए कर्मपुद्गलों को आकृष्ट करने वाले आत्मपरिणामों का संवरण करना, उनका निरोध करना संवर है। ये दोनों पद्धतियां आत्मशोधन की प्रक्रियाएं हैं। मनुष्य अपने आप में कितना स्वस्थ अथवा शुद्ध है, इसका उत्तर अपने आप में खोजा जा सकता है। शारीरिकस्तर पर अथवा मानसिकस्तर पर प्राणी स्वस्थ हो भी सकता है और नहीं भी, पर चैतसिकस्तर पर संसार का हर प्राणी अस्वस्थ और कलुषित है। वीतराग को छोड़कर ऐसा कौनसा प्राणी है जो अपने आप को पूर्ण पवित्र और निर्मल कह सके ? इसलिए सहज ही प्रश्न होता है कि यह अपवित्रता, कलुषता तथा अस्वस्थता क्यों ? इसका एक ही उत्तर है कि हर प्राणी कर्मों के जाल में गूंथा हुआ है। अनादिकाल से वे कर्मबन्धन प्राणिमात्र को संसार के प्रवाह में प्रवाहित कर रहे हैं । उसी के कारण कभी मनुष्य रागद्वेष की मलिनता से आविल होता है, कभी वह कषाय की चतुरंगिनी सेना - क्रोध, मान, माया तथा लोभ से प्रतिहत होता है। कभी चित्त की चंचलता उसे भटकाती है तो कभी मोह की माया उसे मूढ बनाती है । कभी मन, वचन, काया का वैषम्य चित्त को विक्षिप्त करता है तो कभी उनकी वक्रता उन्मार्ग पर ले जाती है। इस प्रकार कर्मपुद्गलों के कारण एक ही जीव अनेक रूपों वाला अनेक परिस्थितियों वाला तथा अनेक चित्तों वाला हो जाता है। उसके मूल स्वरूप को पहचानना और खोजना बड़ा कठिन होता है । मनुष्य का शुद्ध रूप कर्ममल के आवरण से ढंका रहता है, इसलिए उसका विकृत अथवा अशुद्ध रूप ही सामने आता है। आज का अहं प्रश्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003217
Book TitleSindurprakar
Original Sutra AuthorSomprabhacharya
AuthorRajendramuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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