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सिन्दूरप्रकर इस ओर संकेत नहीं किया। उन्होंने दान को समग्रता से ग्रहण कर उसका प्रतिपादन किया है। कौन-सा दान किसके लिए आदेय और उपयोगी हो सकता है, उसका भी प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णन नहीं है। ग्रन्थकार ने निष्पत्ति के रूप में यही कहा है कि कोई भी दान निष्फल नहीं जाता। चाहे वह दान सुपात्र को दिया जाए, चाहे वह मित्र अथवा शत्रु को दिया जाए। चाहे वह दान नौकर, राजा अथवा भाट-चारण को ही प्रदान किया जाए। देने वाले का नाम, सुयश हो सकता है, पर ऐसे दान से 'दानं मोक्षकारणम्' की फलश्रुति क्रियान्वित नहीं होती। संयमी पुरुष यदि दान ग्रहण करता है तो वह अपने संयम-जीवन के निर्वाह के लिए करता है। असंयमी पुरुष के लिए वह सीमा नहीं होती।
पात्रदान का महत्त्व सर्वत्र है। याज्ञवल्क्यस्मृति में पात्र की विवेचना करते हुए कहा गया
'पाकारेणोच्यते पापं, त्रकारस्त्राणवाचकः। अक्षरद्वयसंयोगे, पात्रमाहुर्मनीषिणः।।' 'न विद्यया केवलया, तपसा वापि पात्रता
यत्र वृत्ती इमे चोभे, तद्धि पात्रं प्रकीर्तितम् ।।' 'पा' का अर्थ है-पाप और 'त्र' त्राण-रक्षा का वाचक है। पा+त्रइन दोनों अक्षरों के संयोग से शब्द की निष्पत्ति होती है। तात्पर्य की भाषा में जो आत्मा को पाप से बचाता है, वह पात्र होता है।
पात्रता केवल विद्या से अथवा केवल तपस्या से नहीं आती। जिसमें विद्या (ज्ञान) और तपस्या (चारित्र) इन दोनों का संयोग होता है, वही पात्र कहा जाता है।
वर्तमान युग के संदर्भ में दान के विषय में कुछेक बिन्द चिन्तनीय हैं• पात्र, अपात्र और कुपात्र की भेदरेखा की स्पष्टता। • दाता, देय और याचक की शुद्धता का चिन्तन।
दान के अनेक प्रकारों में कौन-सा दान लौकिक और कौन-सा लोकोत्तर होता है, इसका विश्लेषणात्मक अध्ययन। दान और विसर्जन के मध्य भेदरेखा को समझना सामाजिक व्यवस्था तथा आध्यात्मिक उन्नयन के लिए दिए जाने वाले दान को भिन्न-भिन्न समझना। दान का एकमात्र उद्देश्य सहयोग अथवा परोपकार के लिए होना चाहिए।
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